न प्रधानमंत्री ने धन्यवाद कहा, न राष्ट्रपति, गृहमंत्री या रक्षामंत्री ने कोई प्रतिक्रिया दी
भारत सरकार के चार शीर्ष पद, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और रक्षामंत्री, देश के संवैधानिक ढांचे के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। हाल ही में जब उपराष्ट्रपति ने अपने पद से इस्तीफ़ा दिया, तो इन चारों में से केवल प्रधानमंत्री ने इस पर प्रतिक्रिया दी।
उन्होंने एक संक्षिप्त सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा कि श्री धनगढ़ जी को उपराष्ट्रपति सहित विभिन्न पदों पर देश सेवा करने का अवसर मिला और उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना की।
हालाँकि, इस पोस्ट में प्रधानमंत्री ने उनके कार्यकाल की कोई समीक्षा नहीं की, न सराहना, न आलोचना। यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने “धन्यवाद” शब्द तक का प्रयोग नहीं किया, जिससे यह संकेत मिलता है कि उनके कार्य से सरकार संतुष्ट नहीं थी।
राष्ट्रपति, गृहमंत्री और रक्षामंत्री ने तो इस विषय पर मौन ही साधे रखा, जो स्वाभाविक रूप से उपराष्ट्रपति के प्रति असंतोष का संकेत देता है।
संकेत साफ़ हैं: सरकार उपराष्ट्रपति से थी नाख़ुश, नाराज़गी थी गहरी
प्रधानमंत्री की मौन-सराहना और बाकी शीर्ष नेतृत्व की पूर्ण चुप्पी यह दर्शाती है कि उपराष्ट्रपति से दूरी बनाई जा रही थी। यह महज़ औपचारिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर भी दूरी का प्रतीक है।
सूत्रों के अनुसार, यह चुप्पी सिर्फ़ एक व्यक्ति के इस्तीफ़े पर औपचारिक प्रतिक्रिया की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि यह संकेत है कि सरकार लंबे समय से उनके कुछ निर्णयों और रुख से नाख़ुश चल रही थी।
1. चुनावों के समय उठे पारिवारिक विवाद और पार्टी की अनदेखी
धनगढ़ जी के इस्तीफ़े की पृष्ठभूमि में कई घटनाएं हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान उनके परिवार से जुड़े विवाद सार्वजनिक हुए, जिन्हें पार्टी ने तत्काल प्रभाव से नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की।
लेकिन इन घटनाओं ने संगठन के भीतर असहजता पैदा की और कई नेताओं में भ्रम की स्थिति उत्पन्न की। पार्टी नेतृत्व ने उस समय विवादों को दबा दिया, परंतु यह अविश्वास भीतर ही भीतर पलता रहा।
2. न्यायपालिका बनाम संसद विवाद और विपक्ष से बढ़ती निकटता
एक अन्य बड़ा कारण न्यायपालिका और संसद के टकराव का मामला रहा, जिसमें उपराष्ट्रपति की भूमिका अहम रही। इस मुद्दे को उन्होंने जिस प्रकार सार्वजनिक मंचों पर बार-बार उठाया, उसने सरकार को असहज कर दिया।
और जब इसी विषय पर कार्रवाई की बात आई तो उन्होंने विपक्ष के सुर में सुर मिला लिया, वह विपक्ष जिसने पहले ही उनके विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव लाने का प्रयास किया था।
3. संघीय राजनीति में पक्षपात और दिल्ली बनाम उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण
भाजपा के भीतर चल रही दिल्ली बनाम उत्तर प्रदेश की आंतरिक राजनीति में भी उपराष्ट्रपति एक पक्ष विशेष के साथ खड़े दिखाई दिए।
यह संतुलनहीनता न केवल संगठन को खली, बल्कि उनके निर्णयों की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लगे। इन परिस्थितियों ने उन्हें सरकार और पार्टी, दोनों की दृष्टि में कमजोर कर दिया।
4. जब राष्ट्रपति ने दिखाई कड़ाई, उपराष्ट्रपति करते रहे बयानबाजी
उसी न्यायपालिका विवाद में, स्वयं राष्ट्रपति महोदया ने सख्त रुख अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे थे। लेकिन उन्होंने मीडिया में कोई टिप्पणी नहीं की, जिससे मर्यादा बनी रही।
इसके विपरीत उपराष्ट्रपति लगातार सार्वजनिक बयान देते रहे, जिससे न केवल विषय की गंभीरता प्रभावित हुई बल्कि सत्ता की गरिमा भी संकट में पड़ी।
5. विश्व हिंदू परिषद के मंच और ‘कठमुल्ला’ बयान पर असहजता
सबसे निर्णायक मोड़ तब आया जब उपराष्ट्रपति ने विश्व हिंदू परिषद के मंच पर दिए गए एक न्यायाधीश के बयान का विरोध कर दिया।विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में जज शेखर यादव ने कहा था कि देश बहुसंख्यकों की भावनाओं के हिसाब से चलेगा।
उन्होंने मुसलमानों के लिए कठमुल्ला शब्द का भी इस्तेमाल करते हुए कई ऐसा बातें कहीं, जिन पर हिन्दू विरोधी विपक्ष ने विवाद खड़ा किया। उनके खिलाफ महाभियाग और जज के पद से हटाने की मांग भी की गई।
इसपर जगदीप धनखड़ विपक्ष के पाले में दिखे और कहा था कि जज को हटाने के विषय का संवैधानिक अधिकार विशेष रूप से राज्यसभा के सभापति और आगे चलकर संसद व राष्ट्रपति के पास निहित है।
यह मंच विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन का था, जो कि संघ परिवार का प्रमुख घटक है। न्यायमूर्ति शेखर यादव ने इस मंच से कट्टरपंथी तत्वों के विरुद्ध निर्भीक बयान दिए, जो राजनीतिक रूप से साहसिक माने गए।
लेकिन इसके बाद उपराष्ट्रपति ने ऐसा प्रयास किया जिससे वे न तो सरकार के साथ खड़े रहे, न विपक्ष से दूरी बना पाए। उन्होंने जस्टिस शेखर यादव के बयान को संतुलित करने के लिए जस्टिस यशवंत वर्मा जैसे न्यायाधीशों को सामने लाने की रणनीति अपनाई ताकि दोनों पक्षों को साधा जा सके। यह कदम उल्टा पड़ गया।
अंत में उलझन में फँस गए धनगर जी, स्वयं को ही कर बैठे बर्बाद
यह स्पष्ट है कि इस्तीफ़ा अचानक नहीं हुआ, बल्कि अनेक कारणों के क्रमिक जुड़ाव से यह स्थिति बनी। खासकर जिस प्रकार ‘कठमुल्ला’ शब्द पर कार्रवाई की आशंका खड़ी हुई और उपराष्ट्रपति उस पर बैकफुट पर आ गए, वह निर्णायक क्षण साबित हुआ।
न्यायाधीश शेखर यादव ने कोई भी भड़काऊ व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं की थी, बल्कि धार्मिक कट्टरता पर विचार रखा था। ऐसे में यदि उन पर कार्रवाई होती और भाजपा मौन रहती, तो यह सरकार और संघ के लिए आत्मघाती होता।
वास्तव में, कट्टरपंथियों की ढाल बनना विपक्ष का स्वाभाविक कार्य रहा है, लेकिन जब सत्ताधारी पक्ष के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति ने वही भूमिका निभाई, तो उनकी स्थिति टिक नहीं सकी।
परिणामतः, वह स्वयं भी नहीं बचे और अब उनके इस्तीफ़े पर सरकार की चुप्पी, उस निर्णय को मौन स्वीकृति के रूप में देखी जा रही है।