तलवार की धार पर विदेशनीति: भारत का नाजुक संतुलन
आजादी के बाद से भारत की विदेशनीति पहली बार इतने नाजुक मोड़ पर खड़ी है। वैश्विक शक्ति-संतुलन तेजी से बदल रहा है और हर निर्णय तलवार की धार पर चलने जैसा है।
जरा-सी चूक भी भारत की विश्वसनीयता और सामरिक क्षमता पर भारी पड़ सकती है।
नेहरू का ‘गुटनिरपेक्षता’ प्रयोग और असमंजस
सोवियत संघ के विघटन से पहले भारत के पास कई विकल्प थे। नेहरू कभी स्टालिन से प्रभावित हुए, कभी माओ की क्रांति के मुरीद बने और कभी कैनेडी से सैन्य मदद की याचना करने लगे।
विशेषज्ञ इसे गुटनिरपेक्षता कहते थे, पर आलोचक इसे मजबूरी की नीति मानते हैं।
तर्क दिया जाता है कि यदि नेहरू ने किसी एक रणनीतिक साझेदारी को स्थायित्व दिया होता तो असमंजस कम होता।
उनकी उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी व्यवहारिक रहीं और उन्होंने सोवियत संघ के साथ दीर्घकालिक गठबंधन बना लिया, जिससे तत्कालीन समय में भारत को स्थिरता मिली।
सोवियत संघ का पतन और ‘विधवा विदेशनीति’
सोवियत संघ टूटते ही भारत की विदेशनीति असहाय दिखने लगी। नरसिंह राव ने कूटनीति के संकेतों से काम निकाला और वाजपेयी सरकार के दौरान विदेश मंत्री ने अमेरिकी तंत्र को इस तरह साधा कि भारत समय खरीदकर तकनीकी और सामरिक मजबूती जुटा सका।
अटल सरकार के विदेश मंत्री को आज भी सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उनका कौशल कौटिल्य की रणनीति से तुलना पाता है।
इस दौर में अमेरिका को संतुष्ट रखते हुए भारत ने अपनी स्वायत्तता बचाए रखी और धीरे-धीरे वैश्विक मंच पर स्थान मजबूत किया।
मनमोहन सिंह काल और अमेरिकी दबाव
परमाणु समझौते पर शुरुआती दृढ़ता दिखाने के बाद मनमोहन सिंह सरकार ने अमेरिका के आगे समर्पण कर दिया। 26/11 जैसे वीभत्स हमले के बाद भी वॉशिंगटन के संकेतों पर भारत संयमित रहा। यही वह बिंदु था जहाँ रणनीतिक समुदाय ने सरकार की कठोर आलोचना की।
मोदीकाल की विदेशनीति: दो चरण
मोदी शासन में विदेशनीति दो चरणों में बंटी, ऑपरेशन सिंदूर से पहले और बाद। पहले चरण में भारत ने अमेरिकी थिंक टैंकों को यह संदेश दिया कि चीन को रोकने में अमेरिका से ज्यादा भारत की अहमियत है। इसी दौरान भारत ने आर्थिक और सैन्य शक्ति गुपचुप बढ़ाई।
भारत की वास्तविक शक्ति का अंदाजा खुद भारतीयों को भी नहीं था। यही कारण है कि जब ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान मात्र चालीस मिनट की लड़ाई में घुटनों पर आ गया।
तो दुनिया चौंक उठी। अंतरराष्ट्रीय गलियारों में चर्चा रही कि नूर खान एयरबेस पर अमेरिकी अड्डे को भारी नुकसान हुआ।
ऑपरेशन सिंदूर और अमेरिका की सक्रियता
ढाई दिन तक शांत दिखने वाला अमेरिकी तंत्र अचानक सक्रिय हुआ। वॉशिंगटन ने इस्लामाबाद पर दबाव डालकर डीजीएमओ स्तर पर युद्धविराम कराया।
साथ ही ट्रंप ने क्रेडिट हथियाने का खेल शुरू किया ताकि भारत को असाधारण प्रतिष्ठा न मिल पाए।
यह अमेरिका की पुरानी आदत रही है। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर को तोड़ा रेड आर्मी ने, पर श्रेय का बड़ा हिस्सा अमेरिका ले उड़ा।
इसी तरह बांग्लादेश में पहले से सक्रिय अमेरिकी डीप स्टेट अब खुलकर भारत विरोधी दिखने लगा। ट्रंप का अचानक बदला रवैया भी उसी सिलसिले का हिस्सा है।
युद्धविराम का निर्णय और रणनीतिक धैर्य
प्रश्न उठता है कि जीत के बावजूद भारत ने युद्धविराम क्यों स्वीकार किया। उत्तर यही है कि युद्ध भावनाओं में नहीं।
बल्कि अपनी शर्तों और अनुकूल परिस्थितियों में लड़े जाते हैं। रणनीतिक धैर्य और संसाधनों की बचत ही आगे का रास्ता तय करती है।
युद्धविराम से भारतीय सैन्य ताकत घटती नहीं बल्कि संसाधनों की पुनर्संरचना और कूटनीतिक लाभ सुरक्षित रहते हैं।
यही कारण है कि सैन्य विशेषज्ञ इसे अधूरी विजय नहीं बल्कि संतुलित रणनीति का हिस्सा मानते हैं।
घरेलू उग्रता बनाम संतुलित नीति
सोशल मीडिया पर उग्र स्वर ट्रंप को सार्वजनिक अपमानित करने की मांग कर रहे हैं।
पर ऐसा कदम भारत को एकतरफा रूस की गोद में धकेल देगा, जो आज चीन-निर्भर है। इस स्थिति में भारत पूरी तरह ‘रूस-चीन’ धुरी का बंधक बन जाएगा।
इसीलिए भारत ने तीखी प्रतिक्रिया से परहेज़ किया है। इसके बजाय चीन और रूस से मुलाकातें कर अमेरिका पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाने की रणनीति अपनाई है।
यह संतुलन-प्रतिसंतुलन की वही नीति है, जिसे भारतीय कूटनीति की मजबूरी और ताकत दोनों कहा जा सकता है।
आत्मनिर्भरता की चार अनिवार्य शर्तें
भारत की दीर्घकालिक रणनीतिक स्वतंत्रता चार स्तंभों पर टिकी है,
- स्वदेशी जेट इंजन का विकास
- छठी पीढ़ी का लड़ाकू विमान और 65 स्क्वाड्रन का बेड़ा
- रेयर अर्थ में आत्मनिर्भरता
- कम से कम 12 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था
जब तक यह लक्ष्य हासिल नहीं होते, भारत के लिए ‘मौन-आधारित संतुलन’ ही सर्वोत्तम नीति है।
अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्था को भारत-केंद्रित लाभ-श्रृंखला से जोड़े बिना स्थायी सुरक्षा संभव नहीं।
बीस दिन का इम्तिहान
भारत अब ऐसे मोड़ पर है जहाँ हर कदम सोच-समझकर रखना होगा। न तो भावनात्मक उग्रता और न ही पूर्ण समर्पण, बल्कि संतुलन, धैर्य और शक्ति-संचय ही आगे का रास्ता है। आने वाले बीस दिन इस कूटनीतिक संतुलन की सबसे कठिन परीक्षा साबित होंगे।