डिफेन्स डील
राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का भारत दौरा समाप्त हो चुका है, पर असली कहानी अभी शुरू हुई है। जिन समझौतों की सूची दुनिया ने देखी, उसमें वह एक नाम अनुपस्थित रहा, जिसके इंतजार में वैश्विक विश्लेषक साँस रोके थे। डिफेन्स डील। न कोई औपचारिक घोषणा, न कोई ठोस संकेत। अब स्थिति यह है कि हमारे पास तथ्य कम हैं, संकेत अधिक हैं, और इसी से भारत की रणनीति पढ़नी होगी।
यह मानकर चलें कि यदि कोई गोपनीय रक्षा सौदा नहीं हुआ है, तो इस पूरे प्रकरण को भारत और रूस, दोनों के दृष्टिकोण से देखना ही न्यायोचित होगा। साथ साथ यह भी समझना होगा कि इस सौदे की अदृश्य मेज पर तीसरे और चौथे पात्र के रूप में अमेरिका और चीन भी मौन उपस्थित हैं।
भारत की प्राथमिकता एस 400 और एस 500, संदेह का केंद्र एसयू 57
भारत के दृष्टिकोण से तस्वीर अपेक्षाकृत स्पष्ट है। भारत की वास्तविक सामरिक रुचि रूसी एयर डिफेन्स सिस्टम एस 400 और आगे चलकर एस 500 में है, न कि अनिवार्य रूप से एसयू 57 में। भारतीय वायुसेना और विमान विशेषज्ञ लंबे समय से इंगित कर रहे हैं कि एसयू 57 अभी भी कई तकनीकी और परिचालन कमियों से मुक्त नहीं हुआ है।
भारत के सामने पहला व्यावहारिक प्रश्न यही था कि यदि आज सौदा साइन भी कर दिया जाता, तो क्या रूस की वर्तमान प्रोडक्शन लाइन इन विमानों को दो वर्ष के भीतर डिलिवर कर पाने की स्थिति में है। यूक्रेन युद्ध, प्रतिबंध, लॉजिस्टिक अव्यवस्था और सैन्य उत्पादन के दबाव ने रूसी आपूर्ति शृंखला को अस्थिर कर रखा है। ऐसे में केवल कागज़ पर लिखी डिलीवरी टाइमलाइन भारत के लिए कोई वास्तविक आश्वासन नहीं थी।
इंजन तकनीक, अधूरी पीढ़ी और आर्थिक बोझ का समीकरण
भारत की सबसे बड़ी रणनीतिक शर्त विमान के साथ इंजन तकनीक और इंजन परीक्षण क्षमता के कॉम्बो की थी। राष्ट्र की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए यह स्वाभाविक मांग है। यदि भारत केवल तैयार विमान खरीदे और इंजन तकनीक पर निर्भर बना रहे, तो भविष्य में स्वदेशी लड़ाकू विमानों, भविष्य के एएमसीए जैसे कार्यक्रमों और जेट इंजन स्वावलंबन पर प्रत्यक्ष नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
संकेत यही हैं कि रूस पहले से ही इस स्तर की तकनीक साझा करने को तैयार नहीं था। उसकी दृष्टि में एसयू 57 केवल एक तैयार प्लेटफॉर्म के रूप में बिकने वाला उत्पाद है, न कि भारत को तकनीकी साझेदार बनाने का माध्यम। ऐसी स्थिति में भारत के सामने विकल्प यह था कि वह भारी राशि चुका कर एक ऐसे प्लेटफॉर्म को खरीदे जो तकनीकी रूप से केवल चार दशमलव पचहत्तर पीढ़ी स्तर पर माना जा रहा है, और उसे पांचवीं पीढ़ी के नाम पर बेचने की कोशिश होती रही है।
भारत के लिए यह समीकरण सरलीकृत रूप में ऐसा दिखता था। पैसे पूरे, तकनीक अधूरी, पीढ़ी भी अधूरी। इसीलिए यह सौदा फिलहाल आर्थिक बोझ अधिक और सामरिक लाभ अपेक्षाकृत कम दिखता था।
अमेरिका का कारक, व्यापारिक संतुलन और विकल्पों का प्रश्न
दूसरा और उतना ही महत्वपूर्ण पक्ष अमेरिका है। किसी भी बड़े रूसी रक्षा सौदे का प्रत्यक्ष अर्थ है अमेरिका की बढ़ती नाराजगी, संभावित प्रतिबंधों की तलवार और सामरिक घनिष्ठता के कई दरवाजों पर ताला लगने का जोखिम।
भारत आज केवल रक्षा साझेदार नहीं, अमेरिका का सबसे बड़ा या शीर्ष व्यापारिक साझेदारों में से एक है। भारतीय आईटी, सेवा क्षेत्र, फार्मा, स्टार्टअप इकोसिस्टम, डायस्पोरा, ये सब मिलकर एक ऐसा आर्थिक और सामाजिक पुल रचते हैं जिसे किसी एक डील के लिए दांव पर लगाना कामनसेन्स की दृष्टि से भी उचित नहीं।
यदि भारत इस चरण में बिना संतुलन साधे रूसी कैम्प में बहुत गहरे उतर जाए, तो स्थिति यह बन सकती है कि भारत रूस का स्थायी आयातक तो बन जाए, पर अपनी सबसे बड़ी एक्सपोर्ट मार्केट, अर्थात अमेरिका के साथ संबंधों में अनावश्यक तनाव खड़ा कर ले। रूस की अर्थव्यवस्था अब युद्ध तकनीक, ऊर्जा और कुछ सीमित क्षेत्रों पर केंद्रित है। उसकी आम नागरिक अर्थव्यवस्था भारत के उत्पादन वैविध्य से स्वाभाविक मेल नहीं खाती। भारत रूस के लिए तेल और हथियारों का स्थायी ग्राहक बन सकता है, लेकिन भारत को सेवा, टेक्नोलॉजी, बाजार और निवेश की जो जरूरत है, वह आज भी अमेरिका और पश्चिम से अधिक सुसंगत रूप में मिल रही है।
इसी के साथ यह कटु तथ्य भी है कि हमारे भविष्य के सबसे बड़े प्रतिद्वन्दी चीन के विरुद्ध रूस न तो साफ साफ हमारे साथ खड़ा दिख सकता है, न दिखना चाहता है। उन्नीस सौ बासठ के अनुभव हों या दो हजार बीस की वास्तविकता, रूस का रुख हमेशा संतुलनकारी और स्वयं के हितकेंद्रित रहा है, न कि भारत केंद्रित।
रूस के साथ व्यापारिक असंतुलन और भारत की नई प्राथमिकता
यही कारण है कि वर्तमान सरकार की प्राथमिकता पहले रूस के साथ व्यापारिक संतुलन को सुधारना है। आज स्थिति यह है कि ऊर्जा के कारण भुगतान का पलड़ा रूस के पक्ष में बहुत अधिक झुका हुआ है। यह असंतुलन यदि उसी रूप में आगे बढ़ता रहा तो भारत एक प्रकार से दीर्घकालिक रूप से रूस आश्रित खरीदार की स्थिति में चला जाएगा।
भारत की घोषित नीति है कि वह किसी एक शक्ति खेमे का मुखापेक्षी न बने। न केवल अमेरिका, न केवल रूस। इसका व्यावहारिक अर्थ यही है कि रूस के साथ रक्षा सहयोग, ऊर्जा सहयोग और भुगतान तंत्र में ऐसे समाधान खोजे जाएं जो भविष्य में भारत को स्वतंत्र निर्णय लेने की गुंजाइश दें, न कि किसी एक आपूर्तिकर्ता के दबाव में फंसा दें।
पुतिन का यह दौरा अमेरिका को संदेश देने के लिए पर्याप्त था कि भारत रूस के साथ अपने ऐतिहासिक, सामरिक और ऊर्जा संबंधों को छोड़ने वाला नहीं है। पर उसी समय भारत ने सबसे महंगी चाबी, अर्थात डिफेन्स डील, अभी अपनी जेब में सुरक्षित रखी हुई है।
थैले में छिपी बिल्ली, अमेरिकी उत्सुकता और चीन विरोधी समीकरण
डिफेन्स डील को भारत ने सचेत रूप से एक ऐसी बिल्ली बना कर रखा है जो अभी थैले से बाहर नहीं निकली। यह सौदा जैसे ही औपचारिक रूप से साइन हो जाएगा, अमेरिका की उत्सुकता का बड़ा हिस्सा समाप्त हो जाएगा। तब भारत के पास अमेरिका से अतिरिक्त सहयोग, विशेषकर चीन विरोधी रणनीतिक खेमें में बेहतर स्थान और अधिक लाभकारी सौदे निकालने की गुंजाइश कम हो जाएगी।
आज स्थिति उलटी है। अमेरिका जानता है कि भारत के पास रूस के साथ एक संभावित बड़ा रक्षा विकल्प सुरक्षित रखा हुआ है। इस अनिश्चितता का उपयोग भारत अपने हित में कर सकता है। चीन के विरुद्ध किसी भी संभावित सहयोगी ढांचे में भारत की अनिवार्यता और बढ़ जाती है क्योंकि अमेरिका यह भी देख रहा है कि भारत रूस से दूरी नहीं बना रहा, केवल अपने समय और शर्तों की प्रतीक्षा कर रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति की संभावित भारत यात्रा और गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में आने की चर्चाएं इसी व्यापक पृष्ठभूमि में देखनी होंगी। डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में पारस्परिक विश्वास को जो चोट लगी, वह एक वास्तविक स्मृति है, कोई भावनात्मक अतिशयोक्ति नहीं। पर आज भारत उस स्थिति में है कि वह अमेरिका से भी अपनी शर्तों पर संबंध रख सकता है और बदले में ठोस क्षतिपूर्ति की अपेक्षा रख सकता है, चाहे वह तकनीक हो, निवेश हो या सुरक्षा सहयोग।
रूस के नजरिये से डील, चीन की अनदेखी न की जा सकने वाली छाया
अब ज़रूरी है कि उसी डील को रूस की आँखों से भी देखें। रूस के लिए यह केवल एक व्यापारिक अनुबंध नहीं है। यह उसके वैश्विक कद, सैन्य तकनीक की साख और आर्थिक स्थिरता का प्रश्न भी है।
रूस की चीन के साथ सीमा विवाद और सशस्त्र संघर्ष का इतिहास है, और आज भी व्लादिवोस्तोक पर चीन के दावे खुले रूप में दर्ज हैं। इसके बावजूद वर्तमान आर्थिक वास्तविकता यह है कि चीन रूस का सबसे बड़ा तेल आयातक भी है और अनेक आवश्यक वस्तुओं का मुख्य आपूर्तिकर्ता भी। दूसरे शब्दों में रूस की युद्धकालीन अर्थव्यवस्था का एक बड़ा स्तंभ चीन का सहयोग है।
ऐसी स्थिति में चीन रूस की किसी भी बड़ी डिफेन्स डील को ध्यान से देख रहा था, विशेषकर एस 500 जैसे अत्याधुनिक एयर डिफेन्स सिस्टम को लेकर। यदि रूस भारत को अत्यधिक उन्नत तकनीक या ऐसा कोई सिस्टम देता है जो क्षेत्रीय शक्ति संतुलन में चीन के खिलाफ भारत के पक्ष में भारी झुकाव पैदा करे, तो यह चीन के लिए असहज स्थिति होगी।
यह मान लेना भोला आशावाद होगा कि चीन ने इस दौरे को निष्क्रिय दर्शक की तरह देखा होगा। चीन का अप्रत्यक्ष दबाव, उसका आर्थिक व राजनीतिक महत्त्व, और रूस की उस पर बढ़ती निर्भरता, ये सभी मिलकर एक ऐसा वातावरण रचते हैं जिसमें पुतिन को भारत के साथ बहुत अधिक आगे बढ़ने से पहले बार बार सोचना पड़ा होगा।
यही पृष्ठभूमि पुतिन की उस टिप्पणी की व्याख्या भी करती है, जिसमें उन्होंने कहा कि वे यहाँ केवल तेल और व्यापार की बात करने नहीं आए। यह वाक्य अपेक्षाओं का संकेत भी था और कहीं न कहीं निराशा की हल्की झलक भी। रूस चाहता था कि भारत इस समय उसे एक मजबूत रक्षा अनुबंध के माध्यम से राजनयिक और आर्थिक संदेश दे, पर भारत ने निर्णय को टाल कर यह साफ कर दिया कि वह किसी दबाव या भावनात्मक तर्क पर नहीं, केवल अपने राष्ट्रीय हित और समय के अनुसार ही आगे बढ़ेगा।
त्रिकोण के बीच खड़ा भारत और रणनीतिक स्वाधीनता की परीक्षा
आज यह डिफेन्स डील एक साधारण अनुबंध नहीं, बल्कि रूस, अमेरिका और चीन के त्रिकोण के बीच खड़ी एक निर्णायक चाल बन चुकी है। रूस इसे अपनी तकनीकी साख और आर्थिक राहत के रूप में देखता है। अमेरिका इसे अपने प्रभाव क्षेत्र की सीमा पर खिंची संभावित नई रेखा की तरह देखता है। चीन इसे अपने चारों तरफ के घेराबंदी या राहत, दोनों के संकेतक के रूप में देखता है।
इन तीनों के बीच भारत खुद को केवल ग्राहक नहीं, स्वायत्त धुरी के रूप में स्थापित करना चाहता है। स्वदेशी रक्षा उत्पादन, बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था, आत्मनिर्भर भारत और स्ट्रेटेजिक ऑटोनॉमी केवल नारे नहीं हैं, बल्कि ऐसी डीलों में असली परीक्षा देते हैं।
यदि भारत जल्दबाज़ी में, किसी एक खेमे को संतुष्ट करने के लिए इस डील पर मुहर लगा देता, तो वह अपनी इसी घोषित नीति को कमजोर कर देता। अभी भारत ने उस बिल्ली को थैले में ही रहने दिया है। डिफेन्स डील का कार्ड मेज पर नहीं, जेब में सुरक्षित है।
स्थिति के सभी पहलुओं को मिलाकर देखें तो यह साफ दिखता है कि भारत ने फिलहाल अपनी सबसे महंगी चाल रोक कर रखी है। रूस को यह संदेश मिल गया कि भारत संबंध तोड़ने वाला नहीं। अमेरिका को यह संकेत भी मिल गया कि भारत के पास रूस के साथ हमेशा एक रास्ता खुला रहेगा और इसलिए भारत को हलके में नहीं लिया जा सकता। चीन को यह समझ आ गया कि भारत उसके विरुद्ध किसी भी समय अपने रक्षा विकल्प को आगे खींच सकता है।
यह डिफेन्स डील अब केवल सैन्य प्लेटफॉर्म की खरीद का मामला नहीं रही। यह भारत की सामरिक स्वाधीनता, उसके आर्थिक हित, उसके भविष्य के तकनीकी आत्मनिर्भरता और बहुध्रुवीय विश्व में उसकी केंद्रीय भूमिका की परीक्षा बन चुकी है।
भारत ने इस समय केवल इतना तय किया है कि सौदा होगा भी तो उसी समय होगा जब लाभ, तकनीक, राजनीति और सुरक्षा, चारों दिशाएं एक साथ उसकी तरफ इशारा कर रही हों। उससे पहले नहीं।

