गुरुग्राम में एक इंजीनियर की मृत्यु बिजली के खंभे से करंट लगने के कारण हो ई। उसी दिन गुजरात में एक पुल के ढह जाने से 13 लोग मारे गए, जिनमें एक दो वर्ष की बच्ची और उसकी बहन भी थीं।
वहीं नोएडा में एक बच्चा पार्क में पानी से भरे गड्ढे में डूब गया। ये घटनाएँ अलग-अलग राज्यों की हैं, पर इनमें एक समानता है, सार्वजनिक तंत्र की अनुपस्थिति।
इनमें से प्रत्येक घटना प्रशासनिक कर्तव्य की विफलता का स्पष्ट प्रमाण है। ऐसे मामलों में संवैधानिक उत्तरदायित्व, जिनकी स्थापना अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के अंतर्गत की गई है, पूर्णतः अनुपस्थित दिखाई देते हैं।
जीवन की न्यूनतम गरिमा भी अनुपलब्ध
जयपुर के एक वायरल वीडियो में एक निर्धन व्यक्ति का मोबाइल जलजमाव में गिर जाता है। वह उसे खोजने का प्रयास करता है और अंततः सड़क किनारे बैठकर रोने लगता है। दूसरी ओर लाखों रुपए टैक्स देने के बावजूद करें जलभराव में फंसने से खराब हो रही हैं।
यह दृश्य उस सामाजिक संरचना का सजीव प्रमाण है जिसमें एक आम नागरिक को किसी भी आकस्मिक संकट में कोई सहारा नहीं मिलता।
एक अन्य दृश्य में एक चार वर्षीय बालक जैसे ही अपने घर से बाहर निकलता है, कुछ कुत्ते उस पर आक्रमण कर देते हैं। वह वहीं गिर जाता है। वीडियो वहीं कट जाता है, पर उसका परिणाम अनुमान से परे नहीं है।
इन परिस्थितियों में न किसी नगरपालिका की सक्रियता दृष्टिगोचर होती है, न कोई सामाजिक सुरक्षा तंत्र।
नियति का नाम देकर संस्थागत अपराध को छिपाना
केवल कुछ महीने पहले सड़क किनारे पेड़ के नीचे सोता हुआ एक श्रमिक कचरे से भरी ट्रॉली के नीचे आकर मारा जाता है क्योंकि नगर निगम वाले बिना देखे ट्रॉली का कचरा उसके ऊपर खाली कर देते हैं।
यह घटना न केवल गरिमाहीन मृत्यु का उदाहरण है, बल्कि यह भी स्पष्ट करती है कि देश में सबसे कमज़ोर वर्ग को जीवन की सुरक्षा की कोई न्यूनतम गारंटी नहीं दी जा रही।
यह “दुर्घटनाएं” उस ढांचे का संकेत है जो एक निर्धन व्यक्ति को उसके जीवन के अंत तक भी एक बुनियादी गरिमा नहीं दे पाता।
सार्वजनिक विमर्श से अनुपस्थित नागरिक जीवन
इनमें से किसी भी घटना पर न कोई संसद में प्रश्न उठता है, न कोई टीवी डिबेट होती है। वे विषय ही नहीं बनते, क्योंकि न इसमें दलों की राजनीति है, न जातीय समीकरण।
यह देश, जिसकी राजधानी की हवा सांस लेने लायक नहीं, जहाँ पीने के पानी से लेकर दूध और सब्ज़ी तक में मिलावट एक स्वीकार्य सामाजिक व्यवहार बन चुका है, वहाँ नागरिक जीवन की सुरक्षा को लेकर कोई वास्तविक चर्चा नहीं हो रही।
आँकड़ों के भ्रम से ढका यथार्थ
सरकारी विमर्श का सारा तंत्र ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था, बुलेट ट्रेन, और जी-20 की अध्यक्षता जैसे प्रतीकों के पीछे छिपा है। जबकि ज़मीन पर स्थितियाँ यह हैं कि एक हल्की बारिश में महानगरों की व्यवस्था चरमरा जाती है।
सरकारी विद्यालय और अस्पतालों की स्थिति यह है कि सामान्य नागरिक वहाँ अपने बच्चों को पढ़ाने या इलाज कराने से कतराता है।
टीवी चैनलों पर केवल राजनीतिक वाक्युद्ध और धर्म आधारित बहसें होती हैं। जनस्वास्थ्य, नागरिक सुरक्षा, और नगर नियोजन जैसे बुनियादी विषय पूरी तरह उपेक्षित हैं।
केवल शासन नहीं, सम्पूर्ण राजनीति जिम्मेदार
यह संकट किसी एक राजनीतिक दल या सरकार का नहीं है। यह उस संपूर्ण राजनीति का संकट है जिसने नागरिक को केवल वोट की इकाई मानकर उसके जीवन की अनदेखी की है।
देश में जो भी राजनीतिक दल सक्रिय हैं, उनमें न तो किसी के पास कोई दीर्घकालिक नगरीय योजना है, न सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर कोई व्यवहारिक सोच।
इस शून्यता को छिपाने के लिए ‘विकास’ शब्द का मात्र प्रचारात्मक उपयोग होता है। असल में प्रशासन का मूल उद्देश्य, जनजीवन की रक्षा और सुविधा, वर्तमान व्यवस्था से लुप्त हो चुका है।
लोकतंत्र का मूल उद्देश्य विस्मृत
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में यह स्पष्ट कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करेगा जिसमें न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, सभी नागरिकों को उपलब्ध हो।
परंतु नागरिक के सामने यदि सड़क, पुल, जलजमाव और श्वानों से सुरक्षा का ही कोई प्रावधान न हो तो उसे किस प्रकार का ‘न्याय’ प्राप्त है?
समाधान की दिशा में कदम उठाने होंगे
समस्या के मूल में संस्थागत अकर्मण्यता और नैतिक शून्यता है। इसके समाधान के लिए केवल तकनीकी सुधार पर्याप्त नहीं। आवश्यकता है-
- 1. नगरीय नियोजन के प्रति संवेदनशील और दीर्घकालिक दृष्टिकोण
- स्थानीय निकायों को संसाधन और अधिकार का वास्तविक हस्तांतरण
- 2. सड़क, जल, भवन और विद्युत नियोजन में नागरिक सुरक्षा को प्राथमिक मानक बनाना
- 3. लोक अभियंत्रण विभागों की जवाबदेही तय करना
- नागरिक भागीदारी और सतर्कता तंत्रों को पुनः सक्रिय करना
इन सभी प्रयासों के केंद्र में ‘नागरिक’ होना चाहिए, वह व्यक्ति जो करदाता है, मतदाता है, और सबसे पहले, मानव है।
क्या किसी भी लोकतंत्र का अर्थ यह है कि नागरिक सड़क पर मरते रहें और शासन ‘घटनाओं’ का संज्ञान भी न ले? क्या यह स्वीकार्य है कि एक सामान्य व्यक्ति की जान केवल इसलिए चली जाए क्योंकि राज्य ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया?
इन प्रश्नों का उत्तर यदि नहीं मिलता, तो यह मान लेना चाहिए कि हम एक औपचारिक लोकतंत्र अवश्य हैं, पर एक जीवंत राष्ट्र नहीं।