सात रुपये में पोषण की कल्पना, दो व्यंजन पर नई सरकार का आदेश
राज्य सरकार द्वारा संचालित मिड डे मील योजना की असलियत तब और स्पष्ट हो जाती है, जब यह सामने आता है कि प्रति विद्यार्थी प्रतिदिन केवल सात रुपये की राशि उपलब्ध कराई जाती है।
इस रकम में सरकार चावल और गेहूं तो देती है, लेकिन सब्जी, दाल, मसाले, तेल और ईंधन की व्यवस्था विद्यालयों को स्वयं करनी होती है। इतना ही नहीं, सप्ताह में एक दिन बच्चों को फल देना भी अनिवार्य है।
ताज्जुब की बात यह है कि हाल ही में प्रदेश की सरकार ने यह निर्देश जारी किया है कि दोपहर के भोजन में एक ही दाल या सब्जी से काम नहीं चलेगा।
अब बच्चों को एक साथ दोनों मिलने चाहिए। इतने सीमित बजट में पोषण की उम्मीद करना कहीं न कहीं नीतिगत विडंबना प्रतीत होती है।
दो हजार में रसोइया, दो सौ में सिलाई, सरकार की दरें या मज़ाक?
खाना बनाने वाले रसोइयों के लिए महज दो हजार रुपये मानदेय निर्धारित है। आज के समय में यह रकम किसी मज़दूर की दैनिक मजदूरी से भी कम बैठती है। ऐसे में जिम्मेदारी से भोजन तैयार करवाना कितना संभव है, यह व्यवस्था खुद सवाल खड़े करती है।
ड्रेस सिलाई के नाम पर पिछली सरकार ने प्रति यूनिफॉर्म दो सौ रुपये का प्रावधान रखा था। यह दरें सुनकर किसी भी दर्जी को हँसी आ सकती है।
क्योंकि आज के बाजार भाव में दो सौ रुपये में एक शर्ट भी मुश्किल से सिलेगी, पेंट की तो बात ही दूर है। ये नीतियाँ भले कागज़ों पर सफल दिखें, ज़मीनी स्तर पर यह व्यवस्था महज़ एक औपचारिकता बनकर रह गई है।
सफाई बजट: साल भर के लिए केवल 2500 रुपये
प्राथमिक विद्यालयों में सफाई व्यवस्था के लिए सालाना मात्र 2500 रुपये का बजट तय किया गया है। उच्च प्राथमिक में 5000 और माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक विद्यालयों में 7500 रुपये का प्रावधान है।
यह राशि पूरे वर्षभर की सफाई, साबुन, टॉयलेट क्लीनर, झाड़ू, पोछा और सफाई कर्मियों के भुगतान समेत अन्य व्यवस्थाओं के लिए है।
एक प्राथमिक विद्यालय में अगर 30-40 विद्यार्थी भी हों, तो इतने सीमित बजट में स्वच्छता बनाए रखना न सिर्फ चुनौतीपूर्ण है, बल्कि असंभव जैसा है। शिक्षा के मंदिरों में स्वच्छता के नाम पर इस तरह की उपेक्षा व्यवस्था की प्राथमिकताओं को भी उजागर करती है।
निरीक्षण का बोझ: पांच महीने में 500 स्कूल
ब्लॉक स्तर पर कार्यरत सीबीईओ यानी खंड शिक्षा अधिकारी पर पांच से छह महीनों के भीतर अपने अधीनस्थ सभी विद्यालयों का निरीक्षण करने की जिम्मेदारी होती है।
आमतौर पर एक सीबीईओ के अधीन 500 से अधिक सरकारी और निजी विद्यालय आते हैं। जब कार्यदिवस 150 ही हों और निरीक्षण संख्या 500 से ऊपर, तो गणित खुद जवाब दे देता है।
ऐसे में स्कूल इंफ्रास्ट्रक्चर, पढ़ाई-लिखाई, विद्यार्थियों की उपस्थिति, पोषण स्तर आदि का समुचित आकलन केवल कागजों तक सिमटकर रह जाता है।
यह व्यवस्था न केवल शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करती है, बल्कि प्रशासनिक क्षमता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।
व्यवस्था पर कटाक्ष या कड़वी सच्चाई?
जब इतनी कम लागत पर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं और आंकड़े दर्शाए जाते हैं, तो यह सोचना लाजिमी हो जाता है कि क्या वास्तव में भारतीय शिक्षा व्यवस्था ‘विश्व गुरु’ बनने की दिशा में अग्रसर है?
इन तथ्यों को जानने के बाद ‘भारतीय शिक्षा व्यवस्था की जय’ कहना एक गहरा व्यंग्य बनकर रह जाता है। यह समय केवल नारे लगाने का नहीं, जमीनी सच्चाई से आंख मिलाकर उन्हें सुधारने का है।