Friday, December 5, 2025

विदेशी नेताओं को श्मशान घाट घुमाने की परंपरा का औचित्य ?

राजधानी का पहला दृश्य श्मशान क्यों

जब किसी राष्ट्राध्यक्ष या विदेशी अतिथि को किसी देश की राजधानी में उतारा जाता है, तो वह देश अपना सर्वश्रेष्ठ चेहरा दिखाता है। कहीं उन्हें संसद भवन ले जाया जाता है, कहीं राष्ट्रीय युद्ध स्मारक, कहीं प्राचीन धरोहरों और जीवित संस्कृति के बीच से उनका स्वागत होता है।

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पर दिल्ली में दशकों से बना अजीब दृश्य यह है कि विमान से उतरने के बाद या आधिकारिक कार्यक्रमों के बीच उन्हें राजघाट और अन्य दाहस्थलों पर ले जाया जाता है, जहाँ गांधी, नेहरू, शास्त्री, इंदिरा और राजीव के अंतिम संस्कार पूरे हुए थे।

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राजघाट श्मशान घाट पर पुतिन

यह केवल कूटनीतिक प्रोटोकॉल का प्रश्न नहीं है, यह भारतीय आत्मदृष्टि का प्रश्न है। क्या सनातन परम्परा के अनुसार किसी सम्मानित अतिथि का स्वागत श्मशान भूमि के दर्शन से होता है।

क्या राजनीतिक नेतृत्व के दाहस्थल को राष्ट्र का प्रतिनिधि तीर्थ बना देना शास्त्रोचित है, या केवल सत्ता द्वारा गढ़ा हुआ एक राजनीतिक प्रतीक। यही मूल प्रश्न है।

सनातन परम्परा में श्मशान का स्थान

मृत्यु का स्मरण, पर श्मशान का प्रदर्शन नहीं

सनातन धर्म में मृत्यु से भागने की प्रवृत्ति नहीं है। गीता से लेकर उपनिषद तक हर जगह देह की नश्वरता और आत्मा की अमरता को स्वीकार किया गया है।

श्मशान, महाश्मशान, प्रेतभूमि, ये सब शब्द हमारे धार्मिक साहित्य में आते हैं, पर इनका उद्देश्य वैराग्य जगाना है, शुचि संस्कार के बाद शरीर को पंचतत्व में विलीन करना है, न कि इन्हें सार्वजनिक प्रदर्शन के स्थल में बदल देना।

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G20 समिट में विश्व नेता राजघाट श्मशान घाट पर

धर्मशास्त्रों में मृत्यु के बाद शौच, अशौच, दाह, पिण्डदान, श्राद्ध, तर्पण आदि की स्पष्ट विधियाँ हैं। दाहस्थल का उपयोग कर्म पूरा होने के बाद सीमित है, उसे राजनैतिक तीर्थ के रूप में स्थायी पर्यटन स्थल बना देना न तो शास्त्रीय परंपरा है, न लोकाचार।

राजपुरुष, अतिथि और राजधानी की मर्यादा

हिन्दू परम्परा में राजपुरुष का सम्मान कैसे किया जाता रहा है, यह बात स्पष्ट है। किसी महान राजा या ऋषि के देहावसान के बाद कहीं कहीं राजसमाधि या तीर्थरूप स्मारक बनते हैं, पर वहाँ साधक, अनुयायी, या उस परम्परा के लोग जाते हैं, विदेश से आए अतिथि का पहला पड़ाव श्मशान नहीं होना चाहिए।

अतिथि देवो भव की परम्परा में घर के भीतर और नगर के भीतर भी कुछ क्षेत्र शुभ और कुछ अशुभ माने जाते हैं। विवाह, यज्ञ, उत्सव जैसे शुभ अवसरों पर श्मशान और प्रेतभूमि से दूरी रखी जाती है।

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यूक्रेनी प्रधानमंत्री राजघाट श्मशान घाट पर

राजधानी किसी राष्ट्र का गृहद्वार है। उस गृहद्वार पर श्मशान को प्रमुख प्रतीक बनाना सनातन दृष्टि से असंगत और अमर्यादित है।

पश्चिमी युद्ध स्मारक और भारतीय दृष्टि का अंतर

युद्ध में मारे गए सैनिकों की समाधि या स्मारक दिखाने की परम्परा यूरोप में मुख्यतः प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उभरी।

फ़्लैंडर्स के मैदान, नॉरमनडी, या अर्लिंग्टन जैसे स्मारक युद्ध की विभीषिका और सैनिक बलिदान की सामूहिक स्मृति बन गये। वहाँ राष्ट्राध्यक्षों को ले जाने के पीछे स्पष्ट संदेश होता है कि यह वह कीमत है जो हमने युद्ध के लिए चुकायी है।

भारत की दृष्टि अलग रही है। युद्ध में मारे गए वीरों का स्मरण अवश्य होता है, पर उनके दाहस्थल को राष्ट्र का शाश्वत तीर्थ बनाकर हर अतिथि को वहाँ घुमाने की परम्परा नहीं रही।

हमारे यहाँ कुरुक्षेत्र, चित्तौड़, हल्दीघाटी, पानीपत जैसे युद्धस्थलों को स्मृति में रखा गया, पर राजदरबार का प्रथम प्रोटोकॉल श्मशान दर्शन नहीं बना।

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राजघाट श्मशान घाट पर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा

वीर के सम्मान का अर्थ उसकी वीरगाथा को जीवन में उतारना है, न कि उसकी चिता या अस्थियों के स्थल को पर्यटक मार्ग पर प्रमुखता देना।

यहाँ तो स्थिति और विचित्र है। गांधी हों या नेहरू, इंदिरा हों या राजीव, न वे रणभूमि में मारे गये योद्धा हैं, न उनके बारे में यह कथा गढ़ी जाती है कि उन्होंने शस्त्र लेकर कोई दुर्ग जीता। उनकी कहानी तो खुद उनके अनुयायी शांतिपूर्ण आंदोलन, वार्ताओं और सत्ता हस्तांतरण तक सीमित रखते हैं।

अगर यही आधिकारिक कथा है कि सब प्रेमपूर्वक, बिना हिंसात्मक संघर्ष के हुआ, तो फिर उनके दाहस्थल को युद्ध स्मारक जैसी गरिमा देकर दुनिया के सामने वीरता का स्थल बना के दिखाने की तर्कसंगतता कहाँ से आती है।

गांधी नेहरू स्मारक: आदर्शों का प्रतीक या सत्ता का मंच

अहिंसा की मूर्ति से श्मशान तक का सफर

गांधी को अहिंसा और सत्याग्रह का वैश्विक प्रतीक बनाना एक रणनीतिक परियोजना थी। नेहरू युग में विदेश नीति का केंद्र ही यह था कि विश्व हमें नैतिक शक्ति के रूप में देखे।

राजघाट की परिकल्पना इसी नैरेटिव के भीतर हुई। समस्या यह है कि समय के साथ यह तीर्थ केवल गांधी के जीवन दर्शन का नहीं रहा, बल्कि पूरे नेहरूवादी ढांचे की पूजा का केंद्र बन गया।

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सिंगापुर की पूर्व राष्ट्रपति राजघाट श्मशान घाट पर

हर विदेशी नेता को राजघाट ले जाकर पुष्पांजलि दिलवाना एक संदेश देता है कि भारत का राजनीतिक और नैतिक प्रतिनिधि केवल गांधी और उनके वैचारिक उत्तराधिकारी हैं।

यह उन अनगिनत क्रांतिकारियों, सन्यासी सेनानियों, गुरुओं और जननायकों का अपमान है जिन्होंने शस्त्र और त्याग दोनों से स्वतंत्रता पायी।

वीरता की परिभाषा का राजनीतिक अपहरण

जब वही राजनीतिक धारा बार बार यह कहती है कि गांधी ने अंग्रेजों से प्रेमपूर्ण वार्ताओं और अनुबंधों के सहारे सत्ता का ट्रांसफर कराया, तो वह खुद यह स्वीकार करती है कि यह सत्ता हस्तांतरण एक प्रकार की सौदेबाजी थी, ना कि निर्णायक विजय।

फिर प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिनको आप स्वयं युद्धनायक नहीं मानते, उनके दाहस्थल को आप विश्व के सामने किस प्रकार का वीर स्मारक बताकर दिखा रहे हैं।

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कोरिया के पूर्व विदेश मंत्री राजघाट श्मशान घाट पर

अगर वे योद्धा भी माने जाएँ, तब भी सनातन दृष्टि में वीर के अंतिम संस्कार स्थल को नवनिर्माण की ऊर्जा का केंद्र नहीं बनाया जाता।

ऊर्जा उन स्थानों से आती है जहाँ उसने धर्म, न्याय और राष्ट्र के लिए कार्य किया, जहाँ उसकी तपश्चर्या, त्याग या रणकौशल ने रूप लिया। श्मशान, वैराग्य और संन्यास की अनुभूति का स्थान है, राष्ट्र के निरन्तर जाग्रत प्रतीक का नहीं।

कूटनीतिक प्रतीकों की राजनीति

राष्ट्र की छवि कौन से प्रतीक गढ़ते हैं

किसी भी देश की डिप्लोमैटिक कोरियोग्राफी यह तय करती है कि अतिथि सबसे पहले क्या देखेगा। वही उसकी स्मृति में उस देश का मूल चरित्र बन जाता है।

आज भारत के पास काशी विश्वनाथ कॉरिडोर से लेकर अयोध्या, सोमनाथ, महाकाल लोक, राष्ट्रीय युद्ध स्मारक, संसद भवन, संविधान सभा का ऐतिहासिक कक्ष, विज्ञान संस्थान, अंतरिक्ष कार्यक्रम के केंद्र, कृषि और ग्राम्य जीवन के जीवंत नमूने, सब कुछ है।

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राजघाट श्मशान घाट पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प

इन सबके रहते हुए किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष के आगमन पर श्मशान भूमि को प्रोटोकॉल का अनिवार्य हिस्सा बनाए रखना यह संकेत देता है कि हमारे लिए राष्ट्र का सार अभी भी उन्हीं व्यक्तियों के दाह संस्कार से बंधा है जिन्होंने पिछले सत्तर वर्ष में सत्ता पर एकाधिकार जैसा प्रभाव रखा। यह व्यक्तिपूजा है, राष्ट्रपूजा नहीं।

श्मशान प्रदर्शन और मनोवैज्ञानिक असर

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह एक तरह का भावनात्मक नियंत्रण भी है। जब कोई अतिथि दाहस्थल पर पुष्प चढ़ाता है, तो वह अनजाने में उस वैचारिक धारा को वैधता प्रदान कर रहा होता है जो इन स्मारकों की निर्माता रही है।

बाद में वही तस्वीरें उपयोग की जाती हैं यह दिखाने के लिए कि पूरी दुनिया गांधी नेहरू परम्परा को ही भारत का प्रामाणिक चेहरा मानती है।

सनातन दृष्टि से देखें तो यह मृत देह से चिपकी हुई मानसिकता का प्रतीक है। हिन्दू दर्शन में देह जलने के बाद उस स्थान से मोह छोड़कर आगे बढ़ने की शिक्षा दी जाती है। शास्त्र यह नहीं कहते कि उस स्थान को सदियों तक राष्ट्र का प्रतिनिधि मंच बनाए रखो।

कानूनों और प्रतीकों का जोड़

स्वतंत्रता के बाद जिस दौर में इन दाहस्थलों को राष्ट्र के मुख्य प्रतीक की तरह गढ़ा गया, उसी दौर में अनेक ऐसे कानून भी बने जिन्हें सेकुलरिज्म के नाम पर लागू किया गया, पर जिन्होंने हिन्दू समाज की धार्मिक स्वतंत्रता और स्मृति पर चोट की।

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट और वक्फ एक्ट जैसे प्रावधानों ने प्राचीन मन्दिरों की पुनर्स्थापना, और ऐतिहासिक अन्यायों के सुधार पर लगभग स्थायी ताला लगाने की कोशिश की, जबकि उन्हीं सरकारों ने लुटियंस दिल्ली के प्रतिष्ठित भूखंडों और स्मृति स्थलों को चुन चुन कर एक खास राजनीतिक वंश के दाहस्थलों और स्मारकों से भर दिया।

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वेल्स के राजकुमार और राजकुमारी राजघाट श्मशान घाट पर (1992)

एक तरफ़ तो कहा गया कि इतिहास की चोटों को न कुरेदो, 1947 की तिथि को पत्थर की लकीर मान लो, दूसरी ओर २०वीं सदी के राजनीतिक नेतृत्व की चितास्थल को स्थायी तीर्थ घोषित कर सौ साल, दो सौ साल तक हर अतिथि को वहीं झुकाना अनिवार्य कर दिया गया।

यह दोगली नीति है, जिसमें हिन्दू के हजारों वर्ष पुराने देवस्थानों की पीड़ा को दबाकर कुछ दशकों पुराने दाहस्थलों को राष्ट्रीय प्रतीक बना दिया गया।

हिन्दू दृष्टि से राष्ट्र के उपयुक्त प्रतीक

मृत देह नहीं, जीवित संस्कृति

सनातन धर्म का राष्ट्रदृष्टि यह कहती है कि राष्ट्र केवल भूखंड नहीं, देवभूमि और पुण्यभूमि का संगम है। यह भूमि जहाँ गंगा बहती है, हिमालय खड़ा है, जहाँ राम, कृष्ण, शिव, शंकराचार्य, रामानुज, विवेकानन्द जैसे महापुरुषों की जीवित परम्पराएँ आज भी सांस ले रही हैं।

ऐसी भूमि का प्रतिनिधि दृश्य कोई श्मशान नहीं हो सकता। प्रतिनिधि दृश्य वह हो सकता है जहाँ धर्म और आधुनिकता का संगम दिखे। जहाँ विदेशी अतिथि देख सके कि यह सभ्यता मृत्यु से डरती नहीं, पर मृत्यु को तमाशा भी नहीं बनाती; यह जीवन को उत्सव की तरह और राष्ट्र को यज्ञ की तरह जीती है।

युद्ध स्मारक और वीरगाथा की उचित प्रतिष्ठा

अगर किसी अतिथि को बलिदान की याद दिलानी ही हो तो राष्ट्रीय युद्ध स्मारक, परमवीर चक्र विजेताओं की गाथा, सीमा पर प्रहरी बने जवानों के पराक्रम, इन सबका दर्शन कहीं अधिक संगत है। वहाँ वास्तव में युद्धभूमि में प्राण देने वाले वीरों की स्मृति है।

सनातन दृष्टि में जिनका बलिदान धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए हुआ, उनकी गाथा को सामने रखना उचित है। पर जिनके बारे में आधिकारिक कथा ही यह है कि उन्होंने समझौतों से सत्ता ग्रहण की, उनके दाहस्थल को वीरता की स्मृति स्थल के रूप में अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करना न इतिहास के साथ न्याय है, न धर्म के साथ।

राष्ट्रीय स्मारकों का हो पुनर्विचार, स्मृति की शुद्धि

सवाल किसी व्यक्ति से निजी द्वेष का नहीं है। गांधी, नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव, यह सब आधुनिक इतिहास के पात्र हैं, उनकी आलोचना और प्रशंसा दोनों का अधिकार समाज को है। पर सनातन दृष्टि से देखें तो उनके दाहस्थल को राष्ट्र का शाश्वत प्रतीक बना देना गंभीर भूल है।

राजधानी में आने वाले सम्मानित अतिथि का पहला परिचय भारत की जीवित सभ्यता से होना चाहिए, न कि राख और अस्थियों की कहानी से। श्मशान का सम्मान उसकी मर्यादा में है, उसे मृत्यु के संस्कार तक सीमित रखना ही धर्मसम्मत है।

राष्ट्र की गरिमा यह माँग करती है कि हम अपनी कूटनीतिक प्रतीकों की शृंखला पर नए सिरे से विचार करें। मृत शरीरों की राजनीतिवादी स्मृति से निकलकर उस सनातन चेतना की ओर लौटें जो कहती है कि देह भस्म होती है, पर धर्म और राष्ट्र का आत्मा अमर है।

Mudit
Mudit
लेखक 'भारतीय ज्ञान परंपरा' के अध्येता हैं और 9 वर्षों से भारतीय इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा एवं राजनीति पर गंभीर लेखन कर रहे हैं।
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