डोनाल्ड ट्रंप: अमेरिका और भारत के रिश्तों की मौजूदा स्थिति को महाभारत के उस प्रसंग से समझना जितना सटीक है, उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण भी। क्योंकि यह सिर्फ दो देशों का राजनयिक गतिरोध नहीं है, यह एक ‘मानसिक रोग’ है—जिसे हम “दुर्योधन सिंड्रोम” कह सकते हैं।
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दुर्योधन सिंड्रोम और अमेरिकी मानसिकता
डोनाल्ड ट्रंप: दुर्योधन की समस्या क्या थी? उसे हस्तिनापुर मिल चुका था, पांडव इंद्रप्रस्थ चले गए थे, फिर भी वह बेचैन था। क्यों? क्योंकि उसने पांडवों को दरिद्र, दयनीय, अपमानित देखा था। जब वे समृद्ध हुए तो दुर्योधन की आत्मा उसे स्वीकार नहीं कर पाई। अमेरिका भी भारत को दशकों तक एक ‘भिखारी राष्ट्र’ के रूप में देखता रहा।
डोनाल्ड ट्रंप: 1947 के बाद से अमेरिका ने भारत को वही देखा जो दुर्योधन ने देखा—एक भूखा, नंगा, गंदा देश, जो पश्चिमी दानवीरों के आगे हाथ पसारता रहता था। अमेरिका को कभी भारत से भय नहीं रहा। चीन को उसने अपना आर्थिक सहयोगी बनाया और भारत को ‘बांधकर रखने वाला औजार’।
भारत का बदलता रूप और अमेरिका की बेचैनी
डोनाल्ड ट्रंप: लेकिन भारत बदल चुका है। 1991 में आर्थिक सुधारों की जो बुनियाद स्व. पी वी नरसिम्हाराव ने रखी थी, उसे 2014 के बाद मोदी सरकार ने अपनी निर्णायक नीतियों से गति दी। भारत ने वैश्विक व्यापार में अपनी साख बढ़ाई, सैन्य शक्ति में आत्मनिर्भरता के रास्ते पर कदम बढ़ाए, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, इनोवेशन इंडिया जैसी पहलों से पूरी दुनिया में अपनी क्षमता दिखाई।
डोनाल्ड ट्रंप: चीन के विरुद्ध क्वाड का मंच बनाकर अमेरिका ने भारत को ‘चालबाज साझेदार’ बनाने की कोशिश की, पर भारत ने ‘समान साझेदार’ बनने की जिद पकड़ ली। यही वह क्षण था जब अमेरिका दुर्योधन की तरह बेचैन हुआ।

कोरोना और यूक्रेन युद्ध ने भारत की नई छवि बनाई
डोनाल्ड ट्रंप: भारत ने वैक्सीन कूटनीति से वैश्विक मानवीय जिम्मेदारी निभाई। रूस-यूक्रेन युद्ध में ‘नो नेशन फर्स्ट’ नीति पर चलते हुए भारत ने रूस से भी तेल लिया और पश्चिम से भी संबंध बनाए रखा। यहाँ तक कि भारत ने चीन के साथ LAC पर संघर्ष में अमेरिकी सैन्य सहयोग ठुकरा दिया, जिसने वाशिंगटन डीसी को और बेचैन कर दिया।
ट्रंप बनाम मोदी — निजी अहंकार से राष्ट्रीय नीति तक
डोनाल्ड ट्रंप: डोनाल्ड ट्रंप का भारत विरोध कोई नीतिगत मजबूरी नहीं, बल्कि व्यक्तिगत अपमान की पीड़ा है। बिडेन प्रशासन के दौर में ट्रंप से न मिलना, ट्रंप के भारत से एप्पल जैसी कंपनियों को रोकने की धमकी देना, पाकिस्तान को खुला समर्थन, भारत को चीन के खिलाफ मोहरा बनाना और खुद सऊदी अरब से हथियारों की मोटी डील कर लेना—यह सब भारत को उसकी ‘औकात’ दिखाने की अमेरिकी रणनीति है।
अमेरिकी डीप स्टेट और भारतीय आंतरिक राजनीति
डोनाल्ड ट्रंप: भारत में अर्बन नक्सल, वामपंथी लॉबी, टूलकिट गैंग, किसान आंदोलन के पीछे खालिस्तानी नेटवर्क, और कांग्रेस जैसे तत्वों का प्रयोग कर अमेरिका ने मोदी सरकार को अस्थिर करने का प्रयास किया। बांग्लादेश में तख्तापलट, इंटरनेशनल मीडिया में भारत को बदनाम करने के अभियान, डेमोक्रेसी रिपोर्ट्स में भारत को ‘पार्टली फ्री’ बताना, यह सब उसी दुर्योधन सिंड्रोम का आधुनिक संस्करण है।
व्यापारिक द्वंद्व — पाकिस्तान और भारत के बीच संतुलन
डोनाल्ड ट्रंप: अमेरिका पाकिस्तान के साथ सैन्य निवेश बनाए रखना चाहता है। पाकिस्तान की भू-रणनीतिक स्थिति और चीन के साथ उसकी निकटता अमेरिका को विवश करती है। ऑपरेशन सिंधु और भारत पर टेरिफ थोपना इसी रणनीति का हिस्सा है।
भारत का जवाब — आत्मनिर्भर भारत और वैश्विक शक्ति संतुलन
डोनाल्ड ट्रंप: भारत ने सऊदी अरब से सीधे रक्षा सौदे, फ्रांस से राफेल, रूस से एस-400, इजरायल से ड्रोन तकनीक, अमेरिका से जियोलॉजिकल पार्टनरशिप जैसे कदम उठाए हैं। वैश्विक दक्षिण में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका, BRICS में डॉलर का विकल्प तलाशने की मुहिम, IAF एक्सरसाइज, और ISRO की वैश्विक साख अमेरिका को दिखा चुकी है कि भारत अब ‘सामरिक साझेदार’ नहीं, ‘वैश्विक शक्ति’ बनना चाहता है।
यह शीतयुद्ध खत्म कब होगा?
डोनाल्ड ट्रंप: यह शीतयुद्ध तब तक चलेगा, जब तक अमेरिका भारत को चीन जैसा ‘समान प्रतिस्पर्धी और सहयोगी’ नहीं मान लेता। भारत को बराबरी का दर्जा देने की बजाय नीचे दिखाने की कोशिश अमेरिका को और नीचे गिरा रही है।
भारत को क्या करना चाहिए?
- आर्थिक आत्मनिर्भरता को और सशक्त करना।
- वैश्विक दक्षिण में कूटनीतिक पकड़ मजबूत करना।
- रूस, यूरोप, जापान, इजरायल जैसे संतुलित साझेदारों को मजबूत बनाना।
- डॉलर वर्चस्व को चुनौती देने वाले मंचों का नेतृत्व करना।
- सैन्य, आर्थिक और तकनीकी मोर्चों पर स्वतंत्र नीति बनाना।
अमेरिका को भारत से सीखना होगा
डोनाल्ड ट्रंप: भारत ने 5000 साल की सभ्यता में विनम्रता और आत्मबल के सहारे अपने अस्तित्व को बचाए रखा है। भारत के पास धैर्य, विवेक और वैचारिक शक्ति है। अमेरिका को यह समझना ही पड़ेगा कि भारत ‘उपयोगी औजार’ नहीं, साझेदारी का ‘समान ध्रुव’ है। आख़िरी सवाल यही है—
क्या अमेरिका की आंखें खुलेंगी या वह दुर्योधन बनकर अपनी ही वैश्विक प्रतिष्ठा गंवाएगा?
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