Tuesday, December 23, 2025

ढाकेश्वरी मंदिर: ढाका की आत्मा, सनातन स्मृति और बार-बार दोहराया गया विस्थापन

ढाकेश्वरी

ढाका और ढाकेश्वरी: नाम और पहचान का संबंध

बांग्लादेश की राजधानी ढाका के केंद्र में स्थित ढाकेश्वरी मंदिर केवल एक प्राचीन धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि स्वयं ढाका शहर की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान का मूल स्रोत माना जाता है।

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प्रचलित किवदंतियों के अनुसार, “ढाका” नाम इसी ढाकेश्वरी से निकला है। यह संयोग नहीं, बल्कि संकेत है कि यह नगर जिस चेतना पर खड़ा हुआ, वह सनातन शक्ति परंपरा से जुड़ी रही है।

शक्ति पीठ की मान्यता और विस्मृति का काल

सनातन परंपरा में ढाकेश्वरी स्थल को शक्ति पीठों में सम्मिलित माना गया है। मान्यता है कि यहाँ माता सती के मुकुट का एक रत्न गिरा था। किंतु समय के प्रवाह में यह स्थल भुला दिया गया। सदियों तक यह क्षेत्र घने जंगलों और लतागुल्मों में दबा रहा, जैसे इतिहास स्वयं इसे छिपाने पर मजबूर हो गया हो।

स्वप्नादेश और मंदिर की पुनःस्थापना

बारहवीं शताब्दी में स्थानीय राजा को माँ दुर्गा ने स्वप्न में दर्शन दिए। स्वप्न के निर्देशानुसार जंगल में खोज करने पर लताओं में ढकी एक स्वर्ण प्रतिमा प्राप्त हुई। यह दस भुजाओं वाली दुर्गा प्रतिमा थी, जिसके केवल दो हाथों में त्रिशूल थे और शेष आठ हाथ रिक्त थे।

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प्रतिमा के ढके होने के कारण मंदिर का नाम ढाकेश्वरी पड़ा। उस समय यह स्थान एक छोटा ग्राम था, जो आगे चलकर नगर में परिवर्तित हुआ।

सांस्कृतिक स्मृतियाँ और लोककथाएँ

ढाकेश्वरी मंदिर से अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कथाएँ जुड़ी हैं। काला पहाड़ के विध्वंस की कथा, गुरु नानक की यात्रा और स्वामी विवेकानंद का संदर्भ, इन सबने इस मंदिर को केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि सभ्यतागत स्मृति का केंद्र बनाया। नवरात्रि के नौ दिनों तक यहाँ विशाल मेला लगता था और शक्ति आराधना सार्वजनिक उत्सव का रूप लेती थी।

सल्तनत और मुग़ल काल में क्षति

सल्तनत और मुग़ल काल के दौरान मंदिर को बार-बार नुकसान पहुँचा। इसके बावजूद राजा मानसिंह ने इसका जीर्णोद्धार कराया। परंतु समस्या केवल संरचना की नहीं थी।

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मंदिर की भूमि धीरे-धीरे हड़पी जाती रही। आसपास के ग्राम और खेत समाप्त होते गए और मंदिर का परिसर सिमटता चला गया।

विभाजन और 1947 की त्रासदी

1947 के विभाजन के समय ढाका भी सांप्रदायिक हिंसा से अछूता नहीं रहा। दंगों के दौरान ढाकेश्वरी मंदिर पर हमले हुए। प्राचीन प्रतिमा को लूटने के प्रयास किए गए। यह केवल एक मंदिर पर हमला नहीं था, बल्कि उस स्मृति पर आघात था जिसने ढाका को जन्म दिया था।

प्रतिमा का गुप्त पलायन

इसी असुरक्षा के दौर में वह निर्णायक घटना घटी जिसने इतिहास की दिशा बदल दी। ढाका से कलकत्ता आई एक फ्लाइट में मंदिर के दो कर्मचारी साधारण सूटकेस में प्रतिमा को रद्दी और पुराने कपड़ों के बीच छिपाकर ले आए।

उद्देश्य स्पष्ट था, ढाका एयरपोर्ट पर कस्टम अधिकारियों की पकड़ से बचाना। देवी के आभूषण मंदिर में ही रह गए। केवल प्रतिमा को बचाया जा सका।

कलकत्ता में स्थापना और ढाका में प्रतिकृति

कलकत्ता में एक व्यापारी ने दो वर्ष बाद इस प्रतिमा को एक मंदिर में स्थापित कर पूजा आरंभ करवाई। उधर ढाका में प्रतिमा की एक प्रतिकृति बनाकर पूजा चलती रही।

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आज ढाका की प्रतिमा में दसों हाथों में शस्त्र हैं, जबकि मूल प्रतिमा में ऐसा नहीं था। यह अंतर केवल शिल्प का नहीं, बल्कि इतिहास के टूटे हुए सूत्रों का प्रमाण है।

1971 का युद्ध और मंदिर का अपमान

1971 की लड़ाई ढाकेश्वरी मंदिर के लिए सबसे घातक सिद्ध हुई। पाकिस्तानी सेना ने मंदिर को तोड़कर उसे बारूदखाना बना दिया। युद्ध के बाद मरम्मत अवश्य हुई, किंतु मंदिर की भूमि और भी सिकुड़ गई। संरचना बची, पर उसका विस्तार समाप्त होता गया।

1992 के बाद पुनः हमले

1992 में बाबरी प्रकरण के बाद ढाका में भी उग्र भीड़ ने ढाकेश्वरी मंदिर पर हमला किया। भारी नुकसान हुआ। चार वर्ष बाद स्थानीय हिंदुओं ने अपने सीमित साधनों से फिर से मरम्मत करवाई। यह पुनर्निर्माण आस्था का था, न कि सत्ता का।

आधुनिक दौर की औपचारिक स्वीकार्यता

हाल के वर्षों में मंदिर को राजनीतिक और प्रतीकात्मक महत्व अवश्य मिला। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ढाका यात्रा के दौरान यहाँ पूजा की। 2020 में शेख़ हसीना सरकार ने मंदिर को डेढ़ बीघा भूमि दी। इसके बाद यूनुस का दौरा भी हुआ, जिसे व्यापक रूप से छवि-सुधार के प्रयास के रूप में देखा गया।

वर्तमान खतरा और अनिश्चित भविष्य

दीपु दास के हालिया हत्याकांड के बाद ढाकेश्वरी मंदिर पर एक बार फिर खतरे की छाया है। यह मंदिर आज भी ढाका की संरक्षिका देवी मानी जाती है, किंतु उसी नगर में उसकी सुरक्षा स्थायी नहीं है।

ढाकेश्वरी की प्रतिमा और इतिहास का संकेत

नौ सौ वर्ष पुरानी ढाकेश्वरी देवी की मूल प्रतिमा आज भी कलकत्ता में है। यह तथ्य केवल अतीत की कहानी नहीं, बल्कि भविष्य की चेतावनी है। सनातन परंपरा की मूर्तियाँ केवल धातु नहीं होतीं, वे जीवित स्मृतियाँ होती हैं।

ढाकेश्वरी का इतिहास पूजा का नहीं, बल्कि बार-बार के विस्थापन का इतिहास बन चुका है। यह देखना शेष है कि अगली बार यह स्मृति कहाँ और किस विवशता में अपना स्थान छोड़ेगी।

Mudit
Mudit
लेखक 'भारतीय ज्ञान परंपरा' के अध्येता हैं और 9 वर्षों से भारतीय इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा एवं राजनीति पर गंभीर लेखन कर रहे हैं।
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