दीनदयाल उपाध्याय
आज भारतीय जनता पार्टी के तीन पितृपुरुषों डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पण्डित श्री दीनदयाल उपाध्याय और पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहार वाजपेयी जी की विशाल प्रतिमाओं का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने हाथों से करेंगे। लखनऊ में भारतीय जनता पार्टी के पितृपुरुषों के इस स्मारक का नाम राष्ट्र प्रेरणा स्थल रखा गया है।
आइए जानते हैं जनसंघ के अध्यक्ष श्री दीनदयाल उपाध्याय कौन थे?
1942 का भारत। स्वतंत्रता संग्राम अपने निर्णायक मोड़ की ओर बढ़ रहा था। इसी कालखंड में एक मेधावी युवा, एल टी की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, जीवन की सामान्य सामाजिक अपेक्षाओं विवाह और नौकरी को विनम्रता से अस्वीकार करता है।

वह स्वयं को पूर्णतः राष्ट्रकार्य के लिए समर्पित करने का निर्णय लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन संगठक भाउराव देवरस के समक्ष प्रस्तुत होता है। उसका कथन सरल था, किंतु अर्थ में विराट संघ कार्य हेतु पूरा जीवन अर्पित करने का संकल्प, और जहाँ भी भेजा जाए, वहाँ जाने की तत्परता। यही संकल्प आगे चलकर भारत की वैचारिक राजनीति की दिशा बदलने वाला सिद्ध हुआ।
प्रचारक जीवन की प्रारंभिक तपस्या
उस युवा को प्रचारक के रूप में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जनपद स्थित गोला गोकर्णनाथ भेजा गया। यहाँ जीवन अत्यंत कठिन था। न स्थायी आवास, न भोजन की सुनिश्चित व्यवस्था। किसी भड़भूजे से दो चार पैसे के चने और लोटा भर पानी यही कई दिनों तक जीवन निर्वाह का साधन रहा। यह कोई असाधारण त्याग प्रदर्शन नहीं था, बल्कि राष्ट्रसेवा को जीवन का स्वाभाविक धर्म मान लेने का परिणाम था।
कुंजबिहारीलाल राठी और संगठन का मानवीय आधार
इसी कस्बे में एक प्रतिष्ठित वकील, श्री कुंजबिहारीलाल राठी, अपने कार्यालय से उस युवा की दिनचर्या को नियमित देख रहे थे। चमकती आँखों में पलते स्वप्न और देह पर झलकते कष्ट ने उन्हें आकृष्ट किया। जब उन्होंने उस युवक से उसके उद्देश्य के विषय में पूछा और उत्तर में संघ का ध्येय तथा हिंदू संगठन की व्यवहारिक कल्पना सुनी, तो उनका हृदय द्रवित हो उठा।
उन्होंने न केवल अपने घर का द्वार खोला, बल्कि जीवन भर के लिए संगठन के प्रति समर्पण भी स्वीकार किया। आगे चलकर वही कुंजबिहारीलाल राठी भारतीय जनसंघ, उत्तर प्रदेश के मंत्री बने। यह प्रसंग दर्शाता है कि संगठन केवल विचार नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों का भी निर्माण करता है।
अजातशत्रु पंडित दीनदयाल उपाध्याय
वह तपस्वी युवा कोई और नहीं थे। आगे चलकर वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने और एकात्म मानववाद का वह दर्शन प्रतिपादित किया, जो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों की सीमाओं से परे मानव केंद्रित दृष्टि प्रस्तुत करता है। उनका चिंतन भारतीय परंपरा में निहित समाज, अर्थ और धर्म के संतुलन पर आधारित था।
जन्म बाल्यकाल और शिक्षा
25 सितंबर 1916 को मथुरा जनपद के नगला चंद्रभान गाँव में भगवती प्रसाद उपाध्याय और रामप्यारी देवी के घर जन्मे दीनदयाल जी का बाल्यकाल संघर्षों से भरा रहा। सात वर्ष की आयु तक आते आते माता पिता दोनों का साया उठ गया। मामा के संरक्षण में उनका लालन पालन हुआ।
मेधावी छात्र के रूप में उन्होंने बी एस सी और बी टी की शिक्षा प्राप्त की, किंतु नौकरी को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाया। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय स्वयंसेवक बन चुके थे और कॉलेज छोड़ते ही पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में कार्य में जुट गए।
पत्रकारिता और वैचारिक निर्माण
राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने के लिए उन्होंने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन की स्थापना की। राष्ट्र धर्म मासिक पत्रिका, पांचजन्य साप्ताहिक और स्वदेश दैनिक ये सभी उनके वैचारिक प्रयासों के सशक्त माध्यम बने। पत्रकारिता उनके लिए व्यवसाय नहीं, राष्ट्रबोध का साधन थी।
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जनसंघ की स्थापना
1950 में नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने के बाद ने एक वैकल्पिक राष्ट्रवादी राजनीतिक मंच के निर्माण का निर्णय लिया। संघ के द्वितीय सरसंघचालक के परामर्श से दीनदयाल जी को इस दायित्व के लिए चुना गया।
21 सितंबर 1951 को उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सम्मेलन आयोजित कर भारतीय जनसंघ की राज्य इकाई की नींव रखी गई। 1953 में वे अखिल भारतीय महामंत्री बने और लगभग पंद्रह वर्षों तक संगठन को सुदृढ़ करते रहे।
अध्यक्षता और संगठन कौशल
दिसंबर 1967 के कालीकट अधिवेशन में दीनदयाल जी जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। डॉ मुखर्जी का कथन यदि भारत के पास दो दीनदयाल होते तो राजनीतिक परिदृश्य ही अलग होता उनकी संगठन क्षमता का प्रमाण है।
रहस्यमय अंत और वैचारिक अमरता
11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनका पार्थिव शरीर मिला। यह मृत्यु आज भी संदेह के घेरे में है। किंतु देह के अंत के साथ उनका विचार समाप्त नहीं हुआ। दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रतनलाल जोशी द्वारा कहा गया वाक्य राजनीति में अनेक नेता आएँगे, पर यह अभागा राष्ट्र दीनदयाल के लिए तरसेगा आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
एकात्म मानववाद: भारतीय समाधान
दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन भारतीय समाज को उसकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ते हुए आधुनिक चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करता है। यह दर्शन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सृष्टि के समन्वय की बात करता है। न यह केवल आर्थिक सिद्धांत है, न राजनीतिक नारा, बल्कि एक समग्र जीवन दृष्टि है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन सादगी, तप, संगठन और विचार का दुर्लभ संगम है। वे केवल राजनेता नहीं थे, बल्कि राष्ट्रऋषि थे। उनका जीवन और दर्शन आज भी उन सभी के लिए पाथेय है, जिनकी आँखों में भारत को उसके परम वैभव पर पहुँचाने का स्वप्न जीवित है।

