जातिगत जनगणना: “जब राज्य अपने राजनीतिक हित साधने के लिए आंकड़ों का सौदा करने लगें, तो फिर आंकड़ों पर भरोसा कैसे हो?” यह प्रश्न आज अचानक नहीं उठा है, बल्कि यह उस राजनीति की स्वाभाविक परिणति है जो लंबे समय से तथ्यों के बजाय तुष्टिकरण और वोट बैंक के गणित से संचालित होती रही है। अब जब केंद्र सरकार ने यह घोषणा की है कि आगामी जनगणना में जातिगत आधार पर भी आंकड़े संकलित किए जाएंगे, यह सामाजिक न्याय की राजनीति में एक निर्णायक मोड़ है।
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जातिगत जनगणना का ऐतिहासिक संदर्भ
जातिगत जनगणना: भारत में आखिरी बार पूर्ण जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। उसके बाद से हर जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गिनती तो होती रही, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) या सामान्य वर्ग की उपजातियों की गिनती नहीं हुई। स्वतंत्र भारत में कई बार यह मांग उठी कि जनगणना में सभी जातियों को शामिल किया जाए ताकि नीति निर्माण में तथ्यों का सहारा लिया जा सके। लेकिन हर बार इसे “सांप्रदायिकता”, “संवेदनशीलता”, “राजनीतिक शांति” जैसे कारणों से टाल दिया गया।
राज्य सरकारों की ‘स्वतंत्र’ जातिगत जनगणनाएँ और उनका अनर्थ
जातिगत जनगणना: हाल के वर्षों में बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों ने अपने-अपने स्तर पर जाति आधारित सर्वेक्षण किए। लेकिन इनमें से अधिकांश सर्वेक्षणों पर यह आरोप लगा कि आंकड़े तथ्यों से अधिक ‘राजनीतिक उद्देश्य’ को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किए गए। उदाहरणस्वरूप, बिहार की जातिगत गणना रिपोर्ट में कुछ जातियों की संख्या अविश्वसनीय ढंग से बढ़ा-चढ़ाकर दर्शाई गई, जबकि अन्य जातियों को नजरअंदाज किया गया।
इन सर्वेक्षणों ने यह भी दिखा दिया कि आंकड़ों की विश्वसनीयता राज्य सरकारों की मंशा पर निर्भर है। वोट बैंक साधने की दृष्टि से जातियों की जनसंख्या बढ़ाकर दिखाना और आरक्षण की मांगों को वैध ठहराना — यही राज्य स्तरीय सर्वेक्षणों का प्राथमिक उद्देश्य बन गया था।
केंद्र की भूमिका और नया समीकरण
जातिगत जनगणना: केंद्र सरकार का यह निर्णय कि अब जनगणना में जातीय आधार को भी शामिल किया जाएगा, एक तरह से राज्य सरकारों के ‘राजनीतिक आंकड़ा निर्माण’ की प्रवृत्ति पर रोक लगाने जैसा है। यह एक राष्ट्रव्यापी समान मानक पर आधारित आंकड़ा-संग्रह प्रणाली का प्रस्ताव है जिससे भविष्य में नीतिगत निर्णयों की पारदर्शिता बढ़ेगी और जातिगत दावों की सच्चाई सामने लाई जा सकेगी।
यह केंद्र की एक रणनीतिक चाल भी है — एक साथ दो उद्देश्य पूरे होते हैं। पहला, राज्य सरकारों की जातिगत ‘मनमानी’ पर रोक लगेगी और दूसरा, तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति करने वालों की जमीन खिसकेगी।

कांग्रेस और ओबीसी की राजनीति: राहुल गांधी का सियासी संकट
जातिगत जनगणना: इस निर्णय से सबसे ज्यादा राजनीतिक असहजता राहुल गांधी को हुई है। कांग्रेस लंबे समय से ‘जातिगत आंकड़ों की मांग’ कर रही थी। ‘जितनी आबादी, उतना हक’ जैसे नारों के साथ कांग्रेस ने ओबीसी समुदाय को साधने की कोशिश की थी। लेकिन जब केंद्र सरकार ने स्वयं ही जातिगत आंकड़ों के संकलन का निर्णय ले लिया, तो कांग्रेस के पास कोई विशिष्ट मुद्दा नहीं बचा।
राहुल गांधी की पूरी रणनीति यह थी कि मोदी सरकार OBC की गिनती नहीं कर रही है, और कांग्रेस OBC के अधिकारों की एकमात्र आवाज है। लेकिन अब यह नैरेटिव खुद केंद्र ने छीन लिया है। यह वही स्थिति है जैसी कांग्रेस के राम मंदिर पर रुख को लेकर बनी — जब वह मुद्दा भाजपा ने अपने निर्णायक नेतृत्व से समेट लिया, तो कांग्रेस विरोध के नाम पर खड़ी रह गई।
आंकड़ों का लोकतंत्र बनाम आंकड़ों का प्रपंच
जातिगत जनगणना: यह निर्णय हमें एक महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर ले जाता है — क्या आंकड़े स्वयं में सत्य होते हैं, या वे केवल राजनीतिक सत्य के निर्माण का उपकरण बनते जा रहे हैं? अगर आंकड़े वास्तविक, वैज्ञानिक और निष्पक्ष पद्धति से संकलित हों, तो वे नीति-निर्माण के सर्वोत्तम साधन हैं। पर जब आंकड़े ही पूर्व-निर्धारित उद्देश्य से संकलित हों, तो वे समाज को विभाजित करने का औजार बन जाते हैं।
केंद्र द्वारा जातिगत जनगणना को अपने हाथ में लेना एक तरह से डेटा-सॉवरेनिटी का प्रश्न भी है — राज्य स्तर की विखंडित और असमान डाटा संरचना के स्थान पर, अब केंद्र एक मानक, भरोसेमंद और विधिक आधार वाला डाटा-स्रोत विकसित करेगा।
संभावित जोखिम और समाधान
जातिगत जनगणना: हालाँकि यह निर्णय तार्किक रूप से उचित लगता है, पर इसके सामाजिक प्रभावों को भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। जातियों की वास्तविक संख्या सामने आने के बाद सामाजिक असंतुलन, आरक्षण की नयी माँगें, और नई-नई पहचान-आधारित राजनीतिक गोलबंदी बढ़ सकती है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह इस आंकड़ा संकलन के बाद नीति निर्माण के स्तर पर ‘समावेशी न्याय’ की स्पष्ट नीति भी रखे।
इसके अतिरिक्त, सर्वेक्षण पद्धति को पूर्णतः वैज्ञानिक, डिजिटल और पारदर्शी रखना आवश्यक है। जातियों के उपवर्गों को कैसे वर्गीकृत किया जाएगा, कौन-से नामों को सम्मिलित किया जाएगा, और कौन सी परिभाषा लागू की जाएगी — यह सब स्पष्ट होना चाहिए।
क्या यह हिन्दू समाज के लिए अवसर है?
जातिगत जनगणना: हिंदू समाज लंबे समय से जातीय विभाजन और एकता के संकट से जूझता रहा है। यदि यह जातिगत जनगणना ईमानदारी से की जाती है, तो हिन्दू समाज को यह अवसर मिलेगा कि वह अपने भीतर की वास्तविक सामाजिक रचना को जाने और उसी आधार पर समरसता की नई दिशा तय करे। यह संख्या बल पर आधारित राजनीतिक गोलबंदी के बजाय धार्मिक-सांस्कृतिक एकता के आत्मबोध का कारण भी बन सकता है, बशर्ते समाज के नेतृत्वकर्ता इसे उस दिशा में ले जाएं।
केंद्र सरकार का यह कदम एक ओर शासन प्रशासन को सशक्त करने वाला है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दलों की ‘जाति नीति’ को संतुलित करने वाला भी है। यदि यह काम निष्पक्षता और पारदर्शिता से पूरा होता है तो यह भारतीय गणराज्य के सामाजिक विमर्श को एक नई गंभीरता, नीतिगत स्पष्टता और स्थायित्व प्रदान कर सकता है। यह मात्र आंकड़ों की प्रक्रिया नहीं, बल्कि लोकतंत्र के आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया है — जो जितनी निष्पक्ष होगी, उतनी ही उपयोगी होगी।
आखिर में प्रश्न यह है — क्या हम आंकड़ों से केवल राजनीति करेंगे या एक समरस और न्यायपूर्ण समाज का रास्ता भी बनाएंगे?
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