Thursday, August 28, 2025

वर्तमान में बिहार का चुनावी समीकरण: जातीय वोटर, पार्टियों की गणित और राजनीति की बिसात

सवर्ण वोट पर बीजेपी की पकड़

बिहार की राजनीति में सवर्ण वर्ग अब भी भारतीय जनता पार्टी का मज़बूत आधार बना हुआ है। ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ तबकों में बीजेपी की पकड़ लगातार दिखाई देती है।

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यह समर्थन पिछले चुनावों से लेकर अब तक लगभग स्थिर बना हुआ है और आगामी चुनाव में भी भाजपा को इसका लाभ मिलने की संभावना है।

गैर-यादव ओबीसी, ईबीसी और दलितों का समीकरण

गैर-यादव ओबीसी और ईबीसी के साथ-साथ दलित समुदाय का बड़ा हिस्सा अब भी नीतीश कुमार और जेडीयू के साथ खड़ा है। इन वर्गों में नीतीश बाबू की विश्वसनीयता बनी हुई है।

पासवान समाज और अन्य दलित समूहों में चिराग पासवान की पकड़ मज़बूत है और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के साथ उनका जुड़ाव साफ दिखता है।

वीआईपी पार्टी की गिरती साख

केवट-मल्लाह बिरादरी के नेता सहनी जी की पार्टी वीआईपी ने पहले एनडीए में रहकर चुनाव लड़ा, लेकिन बाद में महागठबंधन में शामिल हो गए।

इसके बावजूद उनके समर्थक वोटरों का बड़ा हिस्सा बीजेपी या जेडीयू के साथ ही जुड़ा रहा। नतीजतन, वीआईपी का संगठन लगातार कमजोर हुआ और आज यह पार्टी अपने परंपरागत आधार से कटकर हाशिये पर पहुँच गई है।

लालू-तेजस्वी का एमवाई समीकरण

राजद का परंपरागत मुस्लिम-यादव (एमवाई) समीकरण इस बार भी तेजस्वी यादव के साथ मजबूती से जुड़ा हुआ है। मुस्लिम समाज का वोट बैंक पूरी तरह उनके साथ है, जबकि यादव समुदाय का बड़ा हिस्सा भी उन्हीं के पक्ष में कायम है।

हालांकि, पढ़े-लिखे कुछ यादव नौजवानों में बदलाव की झलक दिख रही है और उनका रुझान एनडीए की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है। यह बदलाव राजद के वोट प्रतिशत में हल्की सेंधमारी कर सकता है।

रोजगार और पलायन: बड़ा मुद्दा

बिहार में बेरोज़गारी और पलायन सबसे अहम चुनावी मुद्दा बनकर उभर रहा है। बड़े पैमाने पर नौजवानों का रोज़गार के लिए राज्य से बाहर जाना समाज में असंतोष पैदा कर रहा है।

विपक्ष हो या सत्तारूढ़ दल, दोनों को इस मुद्दे पर जनता के सवालों का सामना करना पड़ रहा है। युवाओं में यह विषय चुनावी रुझानों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

प्रशांत किशोर और जन सुराज की चुनौती

प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी इस बार चुनावी मैदान में मौजूद है। हालांकि सीट जीतने की संभावना बेहद कम है, परंतु यह पार्टी हर विधानसभा क्षेत्र में 5 से 10 हज़ार वोट काटने की स्थिति में है।

स्वाभाविक है कि इसका सबसे अधिक नुकसान एनडीए को होगा क्योंकि उसका वोट प्रतिशत अधिक है।

बावजूद इसके, एनडीए और महागठबंधन के बीच का अंतर इतना बड़ा है कि जन सुराज निर्णायक असर डालने की स्थिति में नहीं दिखती।

कांग्रेस की कमजोरी और राहुल गांधी की रणनीति

बिहार में कांग्रेस की स्थिति बेहद कमज़ोर है। पार्टी के पास ठोस वोट बैंक लगभग शून्य है। इसके बावजूद राहुल गांधी तेजस्वी यादव पर दबाव बना रहे हैं।

रणनीति यह है कि गठबंधन से बाहर रहकर कांग्रेस खुद भले ही सीट न जीते, लेकिन राजद को 20-25 सीटों का नुकसान जरूर पहुंचा सकती है।

इसी दबाव की राजनीति के तहत कांग्रेस महागठबंधन में 100 सीटों की मांग पर अड़ी हुई है।

महागठबंधन में बढ़ती खींचतान

महागठबंधन के भीतर सीट बंटवारे को लेकर जबरदस्त खींचतान और लेग-पुलिंग चल रही है। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि पटना में प्रस्तावित रैली को भी रद्द करना पड़ा।

राजद और कांग्रेस के बीच टकराव साफ झलक रहा है और इसका असर गठबंधन की एकजुटता पर पड़ सकता है। यह स्थिति एनडीए के लिए अप्रत्याशित राजनीतिक लाभ लेकर आ सकती है।

आगे की तस्वीर

अब तक के परिदृश्य में सवर्ण, गैर-यादव ओबीसी, दलित और मुस्लिम-यादव समीकरण अपने-अपने खेमों में मजबूती से टिके दिख रहे हैं।

कांग्रेस की मजबूरी, वीआईपी की गिरती ताक़त और जन सुराज की वोटकटवा भूमिका चुनावी माहौल को और पेचीदा बना रही है।

आने वाले दिनों में सीमांचल, मिथिला, चंपारण, सीवान और गोपालगंज जैसे क्षेत्रों के समीकरण इस तस्वीर को और स्पष्ट करेंगे।

वर्तमान में राजनीतिक हलचल चरम पर है और हर दल अपने पत्ते सावधानी से खोल रहा है।

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