देश की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली को लेकर चल रहा विवाद अब न्यायिक मोर्चे पर और गहरा हो गया है। पर्यावरण संरक्षण से जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम याचिका को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार, हरियाणा और राजस्थान सरकार के साथ-साथ पर्यावरण मंत्रालय से जवाब तलब किया है।
यह याचिका हरियाणा के सेवानिवृत्त वन अधिकारी आर.पी. बलवान द्वारा दायर की गई है, जिसमें अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा और उससे जुड़े तथाकथित “100 मीटर नियम” पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। कोर्ट ने 17 दिसंबर को इस याचिका पर नोटिस जारी करते हुए सभी पक्षों से विस्तृत जवाब मांगा है।
100 मीटर की सीमा से क्यों खड़ा हुआ विवाद?
पूरा विवाद उस परिभाषा से जुड़ा है, जिसे हाल ही में अरावली पहाड़ियों के लिए अपनाया गया। नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति की सिफारिश को स्वीकार करते हुए कहा था कि स्थानीय भूमि स्तर से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली माना जाएगा।
इस परिभाषा में पहाड़ियों की ढलान और उससे सटे क्षेत्र भी शामिल किए गए हैं। लेकिन याचिकाकर्ता का तर्क है कि इस सीमा के चलते 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां कानूनी सुरक्षा के दायरे से बाहर हो जाएंगी, जिससे बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय नुकसान की आशंका है।
कई राज्यों पर पड़ सकता है सीधा असर
आर.पी. बलवान का कहना है कि अरावली सिर्फ एक पहाड़ी श्रृंखला नहीं, बल्कि उत्तर-पश्चिम भारत के पर्यावरण की रीढ़ है। यह गुजरात से लेकर दिल्ली तक फैली हुई है और थार रेगिस्तान के फैलाव को रोकने में प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है।
उनके अनुसार यदि 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियों को अरावली का हिस्सा नहीं माना गया, तो राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली समेत बड़े भू-भाग पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इससे भूजल स्तर, जैव विविधता और जलवायु संतुलन सभी प्रभावित होंगे।
सरकार का दावा: भ्रम की स्थिति बनाई जा रही है
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने इस पूरे विवाद को “गलतफहमी पर आधारित” बताया है। उनका कहना है कि 100 मीटर की परिभाषा का मतलब अरावली को कमजोर करना नहीं है। जब तक टिकाऊ और वैज्ञानिक खनन नीति तैयार नहीं हो जाती, तब तक किसी भी नए खनन पट्टे की अनुमति नहीं दी जाएगी।
पर्यावरण मंत्रालय का यह भी कहना है कि राजस्थान में यह परिभाषा पहले से 2006 से लागू है और इसके बावजूद बड़े क्षेत्र को संरक्षण मिला हुआ है।
पहले भी सख्त रुख अपना चुका है सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट पहले ही गुरुग्राम, फरीदाबाद और नूंह जैसे इलाकों में अरावली क्षेत्र में खनन पर कड़ी रोक लगा चुका है। कोर्ट ने माना था कि अनियंत्रित खनन से ऐसा नुकसान होता है, जिसकी भरपाई संभव नहीं है।
ऐसे में मौजूदा याचिका को अरावली संरक्षण की दिशा में एक अहम मोड़ माना जा रहा है।
पूरे मामले की 10 अहम बातें एक नज़र में
- 100 मीटर नियम क्या कहता है?
स्थानीय भूमि स्तर से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली मानने की व्यवस्था की गई है। - यह परिभाषा कब लागू हुई?
नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय की समिति की सिफारिश को मंजूरी दी। - याचिका किसने दायर की है?
हरियाणा के रिटायर्ड वन अधिकारी आर.पी. बलवान ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। - कोर्ट ने अब क्या कदम उठाया?
17 दिसंबर 2025 को याचिका स्वीकार कर केंद्र और राज्यों से जवाब मांगा गया। - याचिकाकर्ता की मुख्य चिंता क्या है?
100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियों को बाहर करने से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ सकता है। - सरकार का पक्ष क्या है?
सरकार का कहना है कि कोई ढील नहीं दी जा रही और नया खनन फिलहाल बंद है। - अरावली क्यों इतनी अहम है?
यह रेगिस्तान के फैलाव को रोकती है और भूजल रिचार्ज में बड़ी भूमिका निभाती है। - यह मामला किस पुराने केस से जुड़ा है?
1996 के टी.एन. गोदावर्मन बनाम भारत संघ मामले से इसका संबंध है। - क्या पहले खनन पर रोक लगी है?
हां, कई संवेदनशील इलाकों में सुप्रीम कोर्ट पहले ही प्रतिबंध लगा चुका है। - आगे क्या हो सकता है?
सभी पक्षों के जवाब के बाद कोर्ट तय करेगा कि अरावली की परिभाषा में बदलाव जरूरी है या नहीं।

