Thursday, May 15, 2025

UNSC की स्थायी सीट ठुकराना, नेहरू की ऐतिहासिक भूल, चीन के सामने बिछ गए थे नेहरू

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1950 के दशक में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में भारत को स्थायी सदस्यता और वीटो शक्ति की पेशकश को ठुकराने का निर्णय आज भारत की वैश्विक स्थिति पर एक गहरा संकट बन गया है। यह एक ऐसी रणनीतिक चूक थी, जिसने भारत को वैश्विक मंच पर वह प्रभाव और शक्ति हासिल करने से वंचित कर दिया, जिसका वह हकदार था। नेहरू का यह निर्णय भारत के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ एक ऐतिहासिक भूल थी।

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क्या होती है UNSC की वीटो पावर?

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में स्थायी सदस्यता और वीटो पावर वैश्विक शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। UNSC, संयुक्त राष्ट्र का एक प्रमुख अंग है, जिसे अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसमें पांच स्थायी सदस्य हैं,

  • संयुक्त राज्य अमेरिका
  • रूस
  • चीन
  • यूनाइटेड किंगडम
  • फ्रांस)

और दस अस्थायी सदस्य शामिल हैं, जो दो साल के लिए चुने जाते हैं। स्थायी सदस्यता इन पांच देशों को अनिश्चितकाल के लिए UNSC में स्थान और विशेष अधिकार प्रदान करती है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है UNSC वीटो पावर

वीटो पावर इन देशों को UNSC के किसी भी प्रस्ताव—चाहे वह सैन्य कार्रवाई, प्रतिबंध, या शांति मिशन से संबंधित हो—को एकतरफा रोकने की क्षमता देता है। यह व्यवस्था 1945 में UN की स्थापना के समय द्वितीय विश्व युद्ध के विजयी देशों को वैश्विक व्यवस्था में प्रमुख भूमिका देने के लिए बनाई गई थी।

उस समय भारत स्वतंत्र नहीं था, इसलिए उसे यह अवसर नहीं मिला, और बाद में जब अवसर मिला तो नेहरू ने इसे ठुकरा दिया और चीन का नाम आगे कर दिया जिसने इस संभावना को इतना जटिल बना दिया, कि आज लगभग एक शताब्दी बीतने को है पर भारत को वीटो पावर नहीं मिल सका है।

भारत को वीटो पावर की पेशकशें, नेहरू ने चीन का नाम किया आगे

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1950 में, कोल्ड वॉर के चरम पर, अमेरिका ने भारत की तत्कालीन अमेरिकी राजदूत विजया लक्ष्मी पंडित के माध्यम से एक अनौपचारिक सुझाव दिया था कि भारत UNSC में ताइवान (रिपब्लिक ऑफ चाइना) की जगह ले सकता है। यह प्रस्ताव कोरियाई युद्ध और सोवियत-चीन गठबंधन के खिलाफ पश्चिमी रणनीति के संदर्भ में आया था।

लेकिन नेहरू ने इसे स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि भारत “चीन की कीमत पर” सीट नहीं लेगा। 1955 में, सोवियत नेता निकोलाई बुल्गानिन ने भारत को UNSC में छठे स्थायी सदस्य के रूप में जोड़ने का सुझाव दिया। इस बार भी नेहरू ने इसे ठुकरा दिया, यह तर्क देते हुए कि चीन की सदस्यता का मुद्दा पहले हल होना चाहिए।

नेहरू के समर्थक दावा करते हैं कि ये प्रस्ताव “औपचारिक” नहीं थे और इन्हें लागू करना UNSC चार्टर में संशोधन की जटिलताओं के कारण मुश्किल था। लेकिन क्या अनौपचारिक प्रस्तावों को पूरी तरह खारिज करना उचित था? क्या नेहरू को इन अवसरों का लाभ उठाने के लिए कूटनीतिक प्रयास नहीं करने चाहिए थे?

विजया लक्ष्मी पंडित के पत्र और अन्य ऐतिहासिक दस्तावेज साफ तौर पर बताते हैं कि ये चर्चाएं गंभीर स्तर पर हुई थीं। नेहरू का इन्हें “आधारहीन” कहकर खारिज करना और चीन के आगे बिछकर चीन के लिए बैटिंग करना उनकी रणनीतिक अक्षमता को उजागर करता है।

आदर्शवाद बनाम राष्ट्रीय हित, चीन ने नेहरु की धज्जियां उड़ाईं

नेहरू का निर्णय उनकी गुटनिरपेक्ष नीति और चीन के प्रति “हिंदी-चीनी भाई-भाई” की भावना से प्रेरित था। वे मानते थे कि चीन, एक उभरती महाशक्ति और पड़ोसी, को UN में उचित स्थान मिलना चाहिए। लेकिन यह आदर्शवाद राष्ट्रीय हितों पर भारी पड़ गया।

1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर इस भाईचारे की धज्जियां उड़ा दीं। अक्साई चिन पर कब्जा और भारत की सैन्य हार ने नेहरू की नीतियों की कमजोरियां उजागर कर दीं। यदि भारत UNSC में स्थायी सदस्य होता, तो उसके पास चीन की आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए अधिक कूटनीतिक और रणनीतिक लाभ होता।

नेहरू का तर्क ये भी था कि UNSC में नई सीट के लिए चार्टर संशोधन कठिन था, तो क्या कठिन काम संभव नहीं होते? कूटनीति का उद्देश्य असंभव को संभव बनाना है। भारत, जो उस समय नवस्वतंत्र राष्ट्रों का नेतृत्व कर रहा था, और उनमें सम्माननीय व शक्तिशाली स्थिति में था कि उसे वीटो ऑफर किया गया, सोवियत यूनियन और अन्य देशों के साथ बातचीत कर इस प्रस्ताव को आगे बढ़ा सकता था। इसके बजाय, नेहरू ने बिना किसी ठोस प्रयास के इसे खारिज कर दिया, जिससे भारत की वैश्विक स्थिति कमजोर हुई।

दीर्घकालिक दुष्परिणामों की अंतहीन गाथा

नेहरू के निर्णय के परिणाम आज भी भारत को प्रभावित कर रहे हैं। UNSC में स्थायी सीट न होने के कारण भारत वैश्विक सुरक्षा और शांति के महत्वपूर्ण निर्णयों में सीमित भूमिका निभाता है, जबकि वह UN शांति रक्षा मिशनों में सबसे बड़ा योगदानकर्ता है और विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

विडंबना यह है कि चीन, जिसके लिए नेहरू ने वकालत की, आज भारत की स्थायी सदस्यता का सबसे बड़ा विरोधी है। यह नेहरू की रणनीतिक गलती का सबसे बड़ा सबूत है। चीन सदैव वैश्विक मुद्दों में भारत का विरोध करता है और पाकिस्तान का पक्ष लेता है। चीन ने अपने वीटो पावर से कई पाकिस्तानी भारत विरोधी आतंकियों को अंतराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने पर रोक लगा दी है।

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पाकिस्तान के साथ कश्मीर विवाद और चीन के साथ सीमा तनाव में UNSC की स्थायी सीट भारत को कूटनीतिक बढ़त दे सकती थी। इसके बजाय, भारत को हर बार G4 (भारत, जापान, जर्मनी, ब्राजील) जैसे समूहों के माध्यम से अपनी मांग दोहरानी पड़ती है, जिसमें प्रगति बेहद धीमी है। यदि नेहरू ने 1950 या 1955 में साहसिक निर्णय लिया होता, तो भारत आज P-5 का हिस्सा होता, और उसकी वैश्विक हैसियत कहीं अधिक मजबूत होती।

चीन की भारत विरोधी आक्रामकता, भारत की सीमित वैश्विक भूमिका, और UNSC में स्थायी सीट न होना, यह स्पष्ट करता है कि नेहरू का आदर्शवाद भारत के लिए महंगा साबित हुआ, जिसका दंश आज 75 साल बाद भी भारत भोग रहा है।

नेहरू की जवाबदेही

जवाहरलाल नेहरू का UNSC की स्थायी सीट को अस्वीकार करने का निर्णय एक गंभीर भूल थी, जिसने भारत को वैश्विक मंच पर उसका उचित स्थान प्राप्त करने से वंचित कर दिया। उनका आदर्शवाद, जो एशियाई एकजुटता और गुटनिरपेक्षता की दृष्टि में निहित था, भू-राजनीति की व्यावहारिक वास्तविकताओं के प्रति उनकी अंधता को दर्शाता है।

चीन की सदस्यता को भारत के रणनीतिक हितों से ऊपर रखकर नेहरू ने न केवल चीन की मंशा को गलत समझा, बल्कि भारत को वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने का एक ऐतिहासिक अवसर भी गंवा दिया। 1962 का युद्ध और UNSC में भारत की महत्वाकांक्षा का चीन द्वारा वर्तमान विरोध इस गलत अनुमान की कड़ी याद दिलाता है।

भारत, अपनी बढ़ती आर्थिक शक्ति, सैन्य ताकत और वैश्विक शांति रक्षा में योगदान के साथ, UNSC में स्थायी सीट का हकदार है। फिर भी, यह हाशिए पर है, मुख्य रूप से नेहरू के उस अवसर को ठुकराने के कारण, जो उन्हें पेश किया गया था। इतिहास नेताओं का मूल्यांकन उनकी मंशा से नहीं, बल्कि उनके परिणामों से करता है।

इस आधार पर, नेहरू की विरासत उस निर्णय से कलंकित है, जिसने भारत को वैश्विक शासन में दोयम दर्जे की भूमिका में धकेल दिया। अब समय है कि हम इस भूल को स्वीकार करें और संकल्प लें कि भविष्य में कभी भी आदर्शवाद को राष्ट्रीय हितों पर हावी न होने दिया जाए।

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