क्या मालेगांव मामले में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को बलि का बकरा बनाया जा रहा है?
29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में एक मस्जिद के पास हुए बम विस्फोट ने न केवल 6 लोगों की जान ली और 100 से अधिक को घायल किया, बल्कि यह भारत की राजनीति और जांच एजेंसियों के लिए एक ऐसा रहस्य बन गया, जो 17 साल बाद भी अनसुलझा है। लेकिन अब, इस मामले ने एक नया और सनसनीखेज मोड़ ले लिया है।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए), जिसने पहले साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और अन्य आरोपियों को क्लीन चिट दी थी, ने अचानक यू-टर्न लेते हुए मुंबई की विशेष अदालत में 1500 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की है, जिसमें प्रज्ञा सहित सात आरोपियों के लिए मौत की सजा की मांग की गई है। लेकिन क्या यह केवल एक कानूनी प्रक्रिया है, या इसके पीछे छिपा है एक गहरी साजिश, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), भाजपा, और केंद्र की सत्ता के शीर्ष नेतृत्व के बीच का अंदरूनी युद्ध सामने आ रहा है?
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साजिश की शुरुआत: 2005 की वह रहस्यमय बैठक
मालेगांव ब्लास्ट: कहानी को समझने के लिए हमें 2005 में गुजरात के डांग जिले में हुई एक कथित बैठक तक वापस जाना होगा। 2014 में कारवां पत्रिका को दिए साक्षात्कार में स्वामी असीमानंद ने एक चौंकाने वाला दावा किया था। उनके अनुसार, मालेगांव (2008) और अजमेर (2007) बम विस्फोटों की योजना इसी बैठक में बनी थी, और इसमें आरएसएस के शीर्ष नेता मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार मौजूद थे।
असीमानंद का यह बयान उस समय भूचाल ला गया था, लेकिन जल्द ही इसे दबा दिया गया। क्या यह महज एक आरोप था, या सच्चाई को छिपाने की कोशिश? और अब, जब एनआईए ने प्रज्ञा ठाकुर के खिलाफ फिर से कड़ा रुख अपनाया है, तो क्या यह पुरानी साजिश का एक नया अध्याय है?

एनआईए का यू-टर्न: सवालों का जाल
मालेगांव ब्लास्ट: 2008 के मालेगांव विस्फोट की जांच पहले महाराष्ट्र एटीएस ने शुरू की थी, जिसमें साध्वी प्रज्ञा को मुख्य आरोपी बनाया गया। 2011 में मालेगांव मामला एनआईए को सौंपा गया, और 2016 में एनआईए ने प्रज्ञा सहित कई आरोपियों को क्लीन चिट दे दी, यह कहते हुए कि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं हैं। लेकिन 2025 में, अचानक एनआईए ने अपना रुख बदल लिया।
1500 पन्नों की चार्जशीट में एजेंसी ने दावा किया कि प्रज्ञा ने साजिश की बैठकों में हिस्सा लिया था, और उनकी मोटरसाइकिल (एलएमएल फ्रीडम) का इस्तेमाल बम धमाके में हुआ था। यह यू-टर्न क्यों? क्या एनआईए पर कोई दबाव है? और अगर हां, तो यह दबाव कहां से आ रहा है?
संघ vs भाजपा: एक छिपा युद्ध?
सूत्रों के हवाले से यह बात सामने आ रही है कि आरएसएस और भाजपा के बीच पिछले कुछ समय से तनाव बढ़ रहा है। अध्यक्ष पद और सरकार की नीतियों समेत संघ के बीच कई मुद्दों पर मतभेद की खबरें हैं। यह तनाव अब मालेगांव मामले में खुलकर सामने आ रहा है। कुछ स्वयंसेवकों का दावा है कि भाजपा का आलाकमान, संघ पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है। इस दबाव का सबसे बड़ा सबूत माना जा रहा है मोहन भागवत का हालिया पीएम आवास का दौरा।

संघ के स्वयंसेवकों के लिए यह घटना “हैरान करने वाली” थी। एक संगठन, जो अपने प्रोटोकॉल और अनुशासन के लिए जाना जाता है, उसके सरसंघचालक का एक अनुषांगिक संगठन (भाजपा) के नेता के आवास पर जाना, वह भी बिना किसी स्पष्ट कारण के, कई सवाल खड़े करता है। एक स्वयंसेवक ने इसे इस तरह बयान किया: “यह ऐसा है जैसे बेटा IAS बन जाए और अपने पिता को बात करने के लिए अपने ऑफिस बुलाए।” पहलगाम घटना के बाद संघ ने केन्द्र सरकार को राजधर्म का पालन करने की नसीहत दे डाली।
क्या यह संघ को नीचा दिखाने की कोशिश थी? और ठीक अगले दिन, केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना की घोषणा की—एक ऐसा मुद्दा, जिसका संघ हमेशा से विरोध करता रहा है। संघ, जहां प्रचारक अपने जातिगत सरनेम तक नहीं रखते, इस घोषणा पर चुप क्यों रहा?
भाजपा अध्यक्ष पद: सत्ता का असली खेल
इस तनाव की एक और कड़ी है भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन को लेकर चल रही रस्साकशी। सूत्रों के अनुसार, संघ चाहता है कि अगला अध्यक्ष उसकी पृष्ठभूमि से हो—कोई ऐसा नेता जो संगठन की वैचारिक नींव को मजबूत करे। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व, खासकर मोदी और शाह, इस विचार के खिलाफ हैं। इसका मुख्य कारण है अध्यक्ष पद पर सर्वसम्मति का अभाव। हाल ही में बेंगलुरु में सरसंघचालक मोहन भागवत और वर्तमान भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की मुलाकात ने इन कयासों को और हवा दी है।

क्या यह मुलाकात केवल औपचारिक थी, या इसके पीछे कोई गहरी रणनीति थी? यह स्पष्ट है कि संघ और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के बीच सहमति की कमी ही इस देरी का असली कारण है। हालांकि, औपचारिक तौर पर हाल के राज्य विधानसभा चुनावों, महाकुंभ, और संगठनात्मक चुनावों को विलंब का बहाना बताया जा रहा है। नरेंद्र मोदी, जो अपने अप्रत्याशित फैसलों के लिए मशहूर हैं, अभी तक अध्यक्ष के लिए सामाजिक, लैंगिक, क्षेत्रीय और राजनीतिक मानदंड तय नहीं कर पाए हैं।
कई नाम चर्चा में हैं, लेकिन किसी पर मुहर नहीं लगी। संघ को राजी करना भाजपा के लिए जरूरी है, क्योंकि लोकसभा चुनावों में संघ को दरकिनार करने का खामियाजा पार्टी भुगत चुकी है। इसके बाद संघ ने विधानसभा चुनावों में अपनी ताकत दिखाई। शायद यही वजह है कि 11 साल बाद मोदी नागपुर में संघ मुख्यालय गए और संघ संस्थापक हेडगेवार को उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि दी। लेकिन सवाल यह है—क्या यह श्रद्धांजलि थी, या क्षति नियंत्रण की कोशिश?
इंद्रेश कुमार और साध्वी प्रज्ञा: साजिश के शिकार?
मालेगांव ब्लास्ट: इंद्रेश कुमार, जो अब राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के जरिए हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करते हैं, 2007 और 2008 के मालेगांव बम धमाकों के बाद से विवादों में रहे हैं। स्वामी असीमानंद के आरोपों ने उन्हें शक के घेरे में ला दिया था, और आज भी वे सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग का शिकार होते हैं। लेकिन क्या इंद्रेश और भागवत दोनों को एक बड़ी साजिश का शिकार बनाकर ब्लैकमेल किया गया था? प्रज्ञा, जो 2019 में भोपाल से भाजपा सांसद बनीं, को पहले जमानत मिली, फिर क्लीन चिट, और अब एनआईए उनकी फांसी की मांग कर रही है। क्या यह संयोग है कि यह सब तब हो रहा है, जब संघ और भाजपा के बीच तनाव चरम पर है?
क्या भाजपा संघ को ब्लैकमेल कर रही है?
भाजपा न केवल संघ को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, बल्कि उन नेताओं को निशाना बना रही है, जो उनकी नीतियों से सहमत नहीं हैं। क्या प्रज्ञा ठाकुर इस सत्ता युद्ध की बलि का बकरा बन रही हैं? और क्या एनआईए का यू-टर्न इस साजिश का हिस्सा है? कुछ लोग यह भी दावा कर रहे हैं कि केंद्र सरकार पर “ईसाई मिशनरियों” का दबाव है, जो हिंदुत्ववादी नेताओं को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, यह दावा अभी केवल एक सनसनीखेज कॉन्सपिरेसी थ्योरी का हिस्सा है।

मेनस्ट्रीम मीडिया की चुप्पी: एक और रहस्य
मालेगांव ब्लास्ट: हैरानी की बात यह है कि मालेगांव ब्लास्ट से जुड़े इस पूरे मामले को मेनस्ट्रीम मीडिया ने लगभग नजरअंदाज कर दिया है। केवल कुछ चुनिंदा न्यूज चैनल, जैसे जी न्यूज, ने इस खबर को प्रमुखता दी। क्या मीडिया को इस सनसनीखेज मामले को दबाने का निर्देश मिला है? और अगर हां, तो यह निर्देश कहां से आ रहा है? मालेगांव मामले के एक आरोपी, समीर कुलकर्णी, ने एनआईए की फाइनल रिपोर्ट पर सवाल उठाते हुए कहा, “पहले एनआईए ने कहा था कि हमारे खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं। अब वही एजेंसी कह रही है कि सबूत हैं। यह समझ से परे है।”
क्या कहते हैं सूत्र?
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के वकील शाहिद नदीम ने दावा किया कि एनआईए ने यूएपीए की धारा 16 का हवाला देकर सख्त सजा की मांग की है, जिसमें आतंकी हमले में मौत होने पर फांसी की सजा का प्रावधान है। वहीं, वरिष्ठ वकील शरीफ शेख ने प्रज्ञा की सीधी संलिप्तता पर जोर देते हुए कहा कि उनकी मोटरसाइकिल का इस्तेमाल और साजिश की बैठकों में उनकी मौजूदगी साबित होती है। लेकिन सवाल यह है कि अगर ये सबूत इतने ठोस थे, तो 2016 में एनआईए ने क्लीन चिट क्यों दी थी?
आगे क्या?
मालेगांव ब्लास्ट: 8 मई 2025 को मुंबई की विशेष एनआईए अदालत मालेगांव मामले में अपना फैसला सुनाएगी। क्या साध्वी प्रज्ञा और अन्य आरोपियों को फांसी की सजा होगी? या यह मामला एक बार फिर नया मोड़ लेगा? क्या यह संघ और भाजपा के बीच की रस्साकशी का नतीजा है, या इसके पीछे कोई और गहरी साजिश है? कुछ स्वयंसेवकों का मानना है कि यह सब लोकसभा चुनाव के दौरान जेपी नड्डा के संघ के खिलाफ बयानों का परिणाम हो सकता है।
सत्य या साजिश?
मालेगांव ब्लास्ट: मालेगांव विस्फोट मामला अब केवल एक आतंकी हमले की जांच नहीं रह गया है। यह एक ऐसी सनसनीखेज कहानी बन चुकी है, जिसमें सत्ता, साजिश, और विश्वासघात के धागे आपस में उलझ गए हैं। क्या साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को सजा देकर संघ को कमजोर करने की कोशिश हो रही है? क्या मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार को जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है? और सबसे बड़ा सवाल—क्या भारत की सबसे ताकतवर राजनीतिक जोड़ी, मोदी और शाह, अपने ही वैचारिक मूल संगठन को किनारे करने की कोशिश कर रही है? सत्य जो भी हो, यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई है।