Thursday, May 1, 2025

“हम दो हमारे दो”, इंदिरा गाँधी ने रची थी सदी की सबसे बड़ी जातीय छंटनी की साजिश

क्या कांग्रेस ने विकास के नाम पर कुछ जातियों के वंशविलोप की योजना बनाई थी?

1970 का दशक भारत के लोकतंत्र पर एक काला धब्बा था, और इस धब्बे की कालिमा का केंद्र थीं इंदिरा गांधी। इंदिरा गाँधी ने “परिवार नियोजन” के नाम पर नारा दिया, “हम दो हमारे दो” , और यही नारा बन गया कई जातियों, वर्गों और सांस्कृतिक समूहों के वंशविनाश और राजनीतिक छंटनी का आधार। यह कांग्रेस द्वारा सुनियोजित जातिगत जनसंख्या छंटनी का प्रच्छन्न अभियान था।

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1970 के दशक में इंदिरा गाँधी का “हम दो हमारे दो” का नारा भारत के हर कोने में गूंजा। इसे जनसंख्या नियंत्रण और विकास का मंत्र बताया गया। सरकार ने इसे सरकारी नौकरियों की शर्त बनाया, प्रचार तंत्र से घर-घर पहुंचाया, और आपातकाल में तो इसे आतंक का हथियार बना दिया। कहा गया, जनसंख्या नियंत्रित होगी, तो संसाधन बचेंगे, तो समाज समृद्ध होगा। पर असल में यह कुछ जातियों को संसाधनों से वंचित करने का दीर्घकालीन एजेंडा था।

उस समय ये कोई नहीं बोला कि ये नीति सबके लिए नहीं है। कोई नहीं बताया कि यह नारा हर जाति, हर वर्ग, हर धर्म पर एक समान लागू नहीं होगा। और कुछ जातियां इस “विकास” के नाम पर अपने ही वजूद की चिता तैयार कर बैठीं — पूरे समर्पण के साथ, पूरे विश्वास के साथ।

“हम दो हमारे दो” जनसंख्या नियंत्रण की आड़ में जाति कंट्रोल का षड्यंत्र

जिन जातियों ने इस नीति को पत्थर की लकीर मान लिया, उन्होंने अनजाने में अपने अस्तित्व पर कुल्हाड़ी मार ली। सोचा, अब दो बच्चे होंगे, तो बेहतर जीवन होगा। बेटा-बेटी पढ़ेंगे, आगे बढ़ेंगे। पर वे यह भूल गईं कि यह नीति हर कोई नहीं अपना रहा, और जिन्होंने इसे दरकिनार कर दिया, वही आज संख्या के बल पर सत्ता, नीति और योजनाओं के केंद्र में हैं।

जिन जातियों के घरों में कभी 10-10 संताने होती थीं, वहाँ अब 1-2 बच्चे भी किसी शर्त या डर के साथ हो रहे हैं। परिवार की संस्था, जो समाज का आधार थी, वही ध्वस्त हो गई, खून के रिश्ते तक मिटते जा रहे हैं। संपत्ति है, लेकिन वारिस नहीं। घर हैं, लेकिन बसने वाले नहीं है। बेटा विदेश में है, बेटी दूसरे शहर में। खेत बंजर हैं और कुलदेवता के मंदिर पर ताला पड़ा है।

और जिन जातियों और मजहबों ने इस नीति को नकार दिया, अपने बच्चों को “वरदान” माना, “बोझ” नहीं। आज वही जातियां ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक अपने दमखम के साथ खड़ी हैं। उनकी बात मानी जाती है, उनकी जाति गिनी जाती है, उनके लिए योजनाएं बनती हैं। क्योंकि उन्होंने उन्होंने समझ लिया कि लोकतंत्र में गिनती ही सबकुछ है। जहाँ ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करके केवल संख्या के आधार पर वोटबैंक बन रहे थे, दूसरी ओर कुछ जातियां “हम दो हमारे दो” के नाम पर घटते घटते लोकतंत्र में हाशिये पर आ गयीं हैं।

“हम दो हमारे दो” का नारा कुछ जातियों के लिए वंशविनाश की संहिता बन गया। उन्होंने खुद अपने अस्तित्व पर सरकारी मुहर से विराम लगा दिया। यह कांग्रेस का कुछ जातियों के विरुद्ध एक धीमी चाल से रचा गया जनसांख्यिक विलोपन का षड्यंत्र था।

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इंदिरा गांधी और कांग्रेस की सिलेक्टिव रणनीति

50 साल पहले इंदिरा ने कहा सिर्फ दो बच्चे पैदा करो, उसे सब समूहों पर सख्ती से जानबूझकर लागू नहीं किया गया। और अब पोता राहुल गाँधी कह रहा है, जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। मतलब जिसकी जितनी ज्यादा जनसंख्या उसे उतना ज्यादा हिस्सा! ये लोकतांत्रिक मानसिकता है या कबीलाई सोच? फिर जो जातियां कांग्रेस की इस भेदभावकारी षड्यंत्रपूर्ण नीति का शिकार बन अपनी जनसंख्या गंवा बैठीं उनका क्या?

जब चीन ने 1 बच्चा नीति घोषित की थी तो सख्ती से संपूर्ण जनसंख्या पर लागू किया था। पर भारत में “हम दो हमारे दो” का कांग्रेसी षड्यंत्र केवल कुछ जातियों के सफाए के लिए था, इसे हर वर्ग पर लागू नहीं किया गया। इसकी आड़ में आपातकाल (1975-77) में नसबंदी को आतंक का हथियार बनाया गया। NCRB के आंकड़ों के अनुसार, 1976 में केवल उत्तर प्रदेश में 6 लाख से अधिक नसबंदी हुईं, जिनमें अधिकांश वे लोग थे जो कांग्रेस के लिए “राजनीतिक बाधा” माने जाते थे।

  • सिलेक्टिव टारगेटिंग: सरकारी नौकरियों में “दो संतान” की शर्त लगा दी गई और नसबंदी शिविरों में कुछ खास जातियों को निशाना बनाया गया।
  • वोट बैंक प्रबंधन: जिन समुदाय विशेष जैसे मुसलमानों का कांग्रेस को समर्थन चाहिए था, उन्हें “जनसांख्यिकी आजादी” दी गई।

यह नीति जनसंख्या नियंत्रण से ज्यादा राजनीतिक संतुलन बदलने का हथियार थी। जिन जातियों ने इसे अपनाया, उन्होंने अपनी संख्या, राजनीतिक प्रभाव और सामाजिक शक्ति खो दी। जिन्होंने इसका विरोध किया, वे आज सत्ता के केंद्र में हैं। अगर यह सभी वर्गों के लिए लाई गयी तो 2 बच्चों से अधिक वालों के वोटिंग अधिकार क्यों नहीं निरस्त किए गए?

“हम दो हमारे दो” नीति या नरसंहार का कोडवर्ड?

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आज 50 साल के जातीय सफाए के बाद कांग्रेस को ‘जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ सूझ रही है। यह उन जातियों के लिए घाव पर नमक जैसा है, जिन्होंने कांग्रेस की नीति के चलते अपनी संख्या और शक्ति खो दी। यह नारा कांग्रेस के ऐतिहासिक धोखे की याद है। जाति जनगणना के ऊपर बार बार ऐसे बयान देकर राहुल गाँधी ने उन पीड़ित जातियों के खिलाफ अपने पीढ़ीगत दीर्घकालिक षड्यंत्र का पर्दाफाश ही किया है।

“हम दो हमारे दो” इंदिरा गांधी द्वारा गढ़ा गया सांस्कृतिक और सामाजिक नरसंहार का कोडवर्ड था। इंदिरा गांधी ने जहाँ इमरजेंसी में लोकतंत्र की हत्या की, बांग्लादेश युद्ध में लाखों हिन्दुओं के नरसंहार की साक्षी बनी, और जनसंख्या नियंत्रण के छलावे से कुछ जातियों के जातीय सफाए (एथनिक क्लींजिंग) द्वारा सदी की सबसे बड़ी सामाजिक छंटनी की मास्टरमाइंड भी बन गयी। इंदिरा गाँधी की दूरदृष्टि की दाद देनी पड़ेगी, जो 50 साल बाद तक की राजनीति का इंतजाम अपने परिवार के लिए कर दिया।

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