Friday, March 14, 2025

करौली की होली की यादें, अब फिर जीवंत होंगी

संभवतः सन 1995, ये करौली में होली के उत्कर्ष का अंतिम पड़ाव था। होरी, फाग, होरी के कार्यक्रम और करौली ये इतना डेडली कॉम्बिनेशन था कि जिन लोगों ने उस दौर को जिया है या देखा है आज उनको रस नहीं आता क्योंकि उन्होंने उस रस का शिखर देखा है।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

क्या ही होरी होती थी करौली में।

होरी से एक महीने पहले पूजन कर कराके हर मोहल्ले में होरी का डंडा गढ़ जाता था। हमारे मोहल्ले में तो हम बच्चों की टोली ही रुपैया चावल रखके अथाई के पीछे कौआ डांडे पर डंडा रोप देती थी।

और निश्चित हो जाता था कि अगले महीने भर में इस ध्वजा दंड के नीचे चारों ओर होरी जलाने के लिए सामग्री इकट्ठी कर देंगे।

होड़ ये होती थी किस मोहल्ले की होली ऊंची जलेगी।

और इसके बाद शुरू होता था ऊकी मांगने का कार्यक्रम। अब ये ऊकी शब्द का क्या मतलब है हमको नहीं पता पर ये करौली में होती थी और हमने बहुत की है। इसके साथ ही शुरू होती थी उगाई।

मतलब ये दो कार्यक्रम ऐसे थे जो युवाओं और बच्चों के लिए 2 महीने की रोलर कोस्टर राइड हुआ करते थे। दिन में स्कूल से भागकर आना और उगाई शुरू करना। रस्ते में घात लगाकर यारों का टोला जम जाता था और हर आने जाने वाले आदमी से शुरू होती थी उगाई।

राजी राजी मिल जाए चवन्नी, अठन्नी, रुपैया, दो रुपैया नहीं तो हाथ में रंग लेकर रंग लगाने की धमकी देना। किसी चलते हुए आदमी के कंधे से उसका अंगोछा, स्वाफी गायब, किसी का सामन गायब।

karauli madanmohan
मदनमोहन जी मंदिर में होली का दृश्य

किसी को बातों में लगाकर उसके हाथ का सामान गायब और वो सामान तब वापस दिया जाता जब होरी का टैक्स दे दिया जाता यानी उगाई। इसमें भी लोगों का भाव ऐसा होता था कि कुछ बड़े तो ऐसे होते थे कि वो चाहते थे कि ऐसी अठखेलियां उनके साथ हो और वो उगाई दें। इस सबका पक्का हिसाब रखा जाता था। इस एक महीने क्रिकेट पूरी तरह बंद होता था बस होरी का यही कार्यक्रम चलता था।

रोज कुछ न कुछ यादगार घटना हो जाती थी जो उस दिन की रस खुराक बन जाया करती थी। आनंद की बात ये है कि इन्हीं दिनों में रंग भी शुरू हो जाता था, मतलब होरी से एक महीने पहले ही किसी को भी रंग लगा देना। स्कूल में इस बात पर पिटाई हुआ करती थी। पर पिटाई हमारे वाले जनरेशन के लिए दैनिक दिनचर्या का एक सामान्य कार्यक्रम हुआ करता था।

दिनभर उगाई के बाद शाम को ऊकी।

holi holika dahan होली होलिका दहन धुलंडी मुहूर्त

यानी दिन में राहगीरों से पैसे की उगाई और संध्या गोधूलि बेला में मोहल्ले में घर घर जाकर कंडे, लकड़ी, झाड़, कुछ भी जलाने योग्य सामान अथवा रुपैया, ये वाली वसूली अपने ही मोहल्ले के हर घर से होती थी। और यदि नहीं होती तो क्या क्या गया करते थे वो आप कमेंट box में बताओ।

इस सब अमूल्य संपत्ति को ले जाकर होरी के डंडे के नीचे जमा कर दिया करते थे। और लगभग 1 महीने में उसे 10 फीट ऊंचा और 10 फीट चौड़ा तो बना ही दिया करते थे। महीने में कम से कम 8 10 दिन कुल्हाड़ी लेकर बच्चे लोग करील काट लाया करते थे और उसे भी होरी में लगा देते थे।

अब तक दिन के 2 कार्यक्रम हो जाया करते थे, दिन में उगाई, शाम को ऊकी। इसके बाद सीधे मदनमोहनजी जाया था, शयन तक वहां होरी गायन की मौज उड़ाते थे। और इसके बाद बारी आती थी सबसे मुश्किल कार्यक्रम की। यानी तीसरे कार्यक्रम की।

यानी रात को कहां पे होरी हो रही हैं वहां जाने की। लेकिन सारे दोस्तों को अपने अपने घर से कैसे गायब होना है ये टास्क हुआ करता था। इस रस से वंचित कुछ लोगों के मम्मी पापा उनको नहीं जाने देते थे क्योंकि उन्होंने अपने बच्चों को जिला कलेक्टर बनाने का प्लान बना रखा था। और ऐसा मौज भरा बचपन जी रहे मोहल्ले के लड़के उनकी निगाह में आवारा थे।

होली और महामूर्ख सम्मेलन

खैर करौली में इतनी जगह होरी होती थीं कि कहीं न कहीं रात को गायब होने का जुगाड़ हो जाता था। टौरी में अंतिम होती संभवतः कैलाश अनुज की हुई, इंस्पेक्टर ऑफिस पे क्या कार्यक्रम हुआ करता था।

क्या चटीकना में, क्या बड़े बाजार में, क्या नगरपालिका पर। क्या गाने वाले लोग थे, क्या आनंद था वो। बड़े बाजार का वो महामूर्ख सम्मेलन, अरे भाई क्या हो कहना उसका।

कौनसी ऐसी जगह जहां एक दिन कार्यक्रम नहीं होता हो। उत्सव का माहौल और दोस्तों के साथ देर रात ऐसे माहौल में रहना 4th डाइमेंशन की यात्रा थी। जिस दिन नहीं होती उस दिन हम अपने की मोहल्ले में अपने से बड़े वाले ग्रुप के कांडों में शामिल होने की कोशिश करते थे।

holi holika dahan होली होलिका दहन धुलंडी मुहूर्त

क्योंकि उनके कांड उनकी नाते हमसे ऊपर वाली हुआ करती थी। हद दर्जे के कांडों को वो देर रात मोहल्ले में अंजाम दिया करते थे। लगभग पूरी रात जागते थे और हम भी यही कोशिश करते थे। मतलब होरी का एक महीना कांडों का महीना हुआ करता था। क्या मजाक था, क्या हास्य विनोद था, क्या सहनशीलता थी, क्या किसी थे, गजब।

ऐसे ऐसे लोग की राजपाल यादव फेल हो जाएं उनकी बातों के आगे। ऐसे करते- करते धीरे- धीरे होली का दिन करीब आता था। और अब होली की कमान हमारे हाथ से निकलकर हमसे बड़े ग्रुप के पास चली जाती थी।

जहां हम पूरे महीने में कुछ सौ रूपए इक्कठे करते वो एक दिन में घर घर जाकर हजारों में करते। हमारे पैसे का तो भोग ही आया होगा कभी। बाकी हम जो महीने भर में डंडे के चारों ओर होली जमाते थे वो होली के दिन उसमें लकडी,घास के पूरे पटकवा देते थे।

और होली विशाल हो जाती थी। जो कि हमारा अंतिम लक्ष्य हुआ करता था। आखिरी दिन उगाई में हमको घर घर से बहन बुआओं के हाथ से बने चंदा सूरज तारे मिलते थे। एक गोलक मिलती थी गोबर की जो बजती थी, उसमें कंकड़  डालते थे शायद।

उस सबको भी हम होलिका मैया तक पहुंचा देते। फिर होली के दिन होलिका दहन, होरी के किसी कार्यक्रम में पूरी रात जागना, सुबह धूलंडी और क्या ही धुलंडी होती थी।

भांग, ठंडाई, रंग, किसी की भी होरी में घुसकर नाचना, सुबह रंग से शुरू हुई होली दोपहर तक कपड़े फाड़ो और कीचड़ में पटको कार्यक्रम में तब्दील हो जाती थी। कैलाश अनुज की मोहन खेले होरी कैसेट लॉन्च हुई थी उन दिनों, उसका अलग नशा रहता था। धुलंडी के दिन लोग अपने कपड़े पहनकर जाते किसी और के पहनकर आते।

जो अपने कपड़े बचाकर ले आए वो सबसे बड़ा वीर। बाकी किसके कम पड़ते थे रामजी जाने। और इस तरह होरी का एक महीना परवान चढ़ता था, जिसमें से गुजरने के बाद होरी के अंतिम दिन एक होरी का मतलब समझ आता था। जब गा दिया जाता था

हंस बोल बखत कट जाए यार मेरे, को कितकू रम जायगौ !

holi holika dahan होली होलिका दहन धुलंडी मुहूर्त

ये होरी रुला देती थी, लगता था ये महीना खत्म ना हो। महीने भर की मौज के बाद धुलेंडी की दोपहर बड़ी उदास होती थी। लगता था सब लुट गया । लेकिन पिछले 20 25 साल में करौली में सब खत्म सा हो गया।

ना जाने किसकी नजर लगी यहां की संस्कृति बिना शोर मचाए लुप्त हो गई। कारण यहां के लोगों में अपनी विशेष संस्कृति को लेकर गौरव का भाव नहीं है।

कुछ रोजगार, कुछ स्वार्थ, कुछ अहंकार और कुछ अपनी मातृभूमि के प्रति गौरव बोध की कमी से ये आनंद का महीना गायब हो गया।

आज करौली शांत है।

जहां कभी माइक से रातभर होरी की आवाज सुनाई देती थी। जो लोग सुनने नहीं जाते वो माइक से सुनकर ही बता देते थे फलाना आदमी गा रहा है। लेकिन अब वो माइक बंद हैं, सन्नाटा सा है।

पर पिछले कुछ सालों में एक चमत्कार हुआ है।

सोच लिया गया कि सब खत्म हो जाएगा। इस बीच एक नई पीढ़ी आई और उसमें इतने सारे लोग गाने बजाने वाले आ गए की इन लोगों ने मदनमोहनजी में और मदनमोहजनी के बाहर आनंद उड़ा रखा है।

अचानक से करौली में माहौल बदलने लगा है। पुरानी संस्कृति ना सही पर नए लड़के मदनमोहनजी से जुड़ रहे हैं। गा रहे हैं, बजा रहे हैं। अन्यथा जब हम मदनमोहजनी में कीर्तन करते थे तो लोगों  को खड़े होने में शर्म आती थी।

लेकिन अब माहौल अलग है और कीर्तन में क्या ही भीड़ है, क्या ही आनंद है। और इस बदलाव का प्रभाव प्रभाव होरी में भी आ गया है।

इस बार मेरे साथी दोस्तों और छोटे भाईयों ने जो माहौल बनाया है वो गजब है और संभावना देता है कि मदनमोहन ने चाहा तो अगले साल से अपनी संस्कृति को भी पुनर्जीवित कर लेंगे।

फिर से पूरी करौली में पूरे एक महीने की होरी हुआ करेगी और जो भी लोग काम से बाहर चले गए वो सब लौट आया करेंगे।

इसी इच्छा के साथ होरी की राम राम।
बड़ेन कू दण्डौत
भैयान कू रामराम
और छोटेन कू जय जय।
बोल होरी के रसिया की जय।

(किस्से बहुत हैं टुच्चु गुरु के बाद, रमाकांत जी गुरु, गुड्डी पराशर से लेकर सभी अगली गायन मंडली के लोगों के। पर सब संभव नहीं। कुछ आपके लिए छोड़ा है ताकि आप बताओ और क्या क्या होता था।)

ये पोस्ट भी एक महीने पहले लिख देनी थी ताकि सब अपनी यादें कह पाते। पर ये आज ही लिखनी लिखी थी। संभवतःअगली बार समय पर होगी बाकी मदनमोहन जाने। होगा वहीं जो वो चाहेगा। राधे राधे।

– अश्विन कुमार, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक

होली पर ये राशि होंगी मालामाल, राशि के अनुसार रंगों से खेलें होली

- Advertisement -

More articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisement -

Latest article