हंदू धर्म में शंख का अपना एक खास महत्व है। किसी भी पूजा पाठ और शुभ कार्यों से पहले और अंत में शंख बजाना बहुत ही अच्छा माना जाता है। शंख को खुशहाली, हर्षोल्लास, शांति, सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
पुराणों में देवी देवताओं के बहुत सी दिव्य चीजों के बारे में बताया गया है। इसी तरह महाभारत में श्री कृष्ण के शंख का भी वर्णन मिलता है। जिसका नाम पाञ्चजन्य था। इस शंख के कई रहस्य हैं।
श्री कृष्ण के इस शंख की उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान हुई थी। यह समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों में से छठा रत्न पाञ्चजन्य शंख था। माना जाता है इस शंख की ध्वनि कई किलोमीटर दूर तक सुनाई देती थी।
महाभारत के समय श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य शंखनाद से ही पांडवों में उत्साह बढ़ाया था जहां श्री कृष्ण के शंख नाद से पांडवों की ऊर्जा बढ़ती था, वहीं कौरवों की सेना में इस श्नख की ध्वनि से भय पैदा हो जाता था।
कथा के अनुसार, श्री कृष्ण अपने गरु के पुत्र पुनर्दत्त को लेने के लिए समुद्र में गए जहां शंखासुर ने श्रीकृष्ण के साथ युद्ध किया और युद्ध में श्रीकृष्ण से हारकर उसने बताया कि पुनर्दत्त की आत्मा यमलोक में है। जिसके बाद श्रीकृष्ण ने शंखासुर का वध के बाद शंख अपने पास रख लिया।
भगवान कृष्ण जब पुनर्दत्त की लेने यमलोक पहुंचे तब यमराज ने पुनर्दत्त की आत्मा को लौटान से मना कर दिय। जिसके बाद श्रीकृष्ण के क्रोध आया और उन्होंने शंखनाद किया जिससे पूरा यमलोक हिलने लगा, जिससे डरकर यमराज ने पुनर्दत की आत्मा को वापस श्रीकृष्ण को दे दिया।
कहा जाता है कि जब श्री कृष्ण अपने गुरु के पुत्र पुनर्दत के साथ पाञ्चजन्य शंख को भी अपने गुरु सांदीपनि को दे दिया था। लेकिन उनके गुरु ने शंख को यह कहते हुए श्रीकृष्ण को वापस दे दिया कि यह तुम्हारे लिए है। जिसके बाद गुरु की आज्ञा से उन्होंने शंखनाद कर पुराने युग का समापन और नए युग की शुरुआत की थी।